: १२ : आत्मधर्म : जेठ : २४९७
रागनो प्रवेश तेमां कदी छे ज नहि; आवा आत्माने अनुभवनारा जीवो ज साचा
वैराग्यवंत छे.
* पुण्य अने पाप बंनेथी पार एकला ज्ञानमय जे भाव छे तेने ज वैराग्य कह्यो छे,
ने एवा विरक्त जीवो ज ज बंधनथी छूटे छे; पुण्यना रागमां पण जे रक्त छे ते
तो बंधाय छे. पुण्य स्वयंबंधन छे, तेना वडे मुक्ति थती नथी.
* स्वद्रव्यनुं ग्रहण कर्यां विना, अने पर द्रव्यनुं ग्रहण छोड्या विना, जीवनुं कल्याण
थाय नहीं. माटे श्रीमद् राज राजचंद्रजी (नानी वयमां पण अंतरना संस्कारथी)
लखे छे के –
स्वद्रव्यना ग्राहक त्वराथी थाओ,
परद्रव्यनुं ग्राहकपणुं त्वराथी छोडो.
स्वद्रव्यनुं तो अतीन्द्रिय महान आनंदथी भरेलुं छे; ते आनंदमां रमणता
करो ने परद्रव्यमां रमणता छोडो. परद्रव्यमां रमणता ते दुःख छे, तेने त्वराथी
छोडो ने स्वद्रव्यना सुखमां त्वराथी लीन थाओ.
* कोईने एम लागे के जंगलमां मुनिने एकला – एकला केम गमतुं हशे! अरे
भाई! जंगल वच्चे निजानंदमां झुलता मुनिओ तो परम सुखी छे; जगतना
राग–द्वेषनो घोंघाट त्यां नथी. कोई पर वस्तु साथे आत्मानुं मिलन ज नथी,
एटले परना संबंध वगर आत्मा स्वयमेव एकलो पोते पोतामां परम सुखी छे.
परना संबंधथी आत्माने सुख थाय एवुं तेनुं स्वरूप नथी. सम्यग्द्रष्टि जीवो
पोताना आवा आत्माने अनुभवे छे अने तेने ज उपादेय जाणे छे.
* तीक्ष्ण बुद्धि एटले स्वसन्मुख ज्ञान, तेमां पोतानो शुद्ध आत्मा ज उपादेय छे.
तेमां बीजुं कांई उपादेय नथी, पर्याय ते शुद्धआत्मामां घूसी गई त्यारे तेमां
शुद्धात्मा उपादेय थयो.
* विकल्पभावमां शुद्ध आत्मा उपादेय थतो नथी, अनुभवातो नथी; शुद्धआत्मा तो
स्वसन्मुख बुद्धिमां ज उपादेय थाय छे; स्वसन्मुखबुद्धि ते निर्विकल्प भाव छे, ते
विकल्पथी पार छे.
* जुओ, आ शुद्धआत्माने उपादेय करवानी रीत! तेने प्राप्त करवानी एटले के
अनुभवमां लेवानी आ रीत छे.
‘आत्मा उपादेय छे’ एम शास्त्रनी धारणा करी लीधी तेथी आत्मा उपादेय
थई जतो नथी; पण जेनी बुद्धि स्वद्रव्यमां घूसी गई छे एवा शुद्धद्रष्टिवाळा
पुरुषोने परमात्मतत्त्व उपादेय छे, एम कहीने अपूर्व वात समजावी छे.
* तारे सुख जोईतुं होय तो तारा सहज आत्मस्वभावने ज उपादेय कर, ए