: जेठ : २४९७ आत्मधर्म : १३ :
सिवाय बीजुं कांई उपादेय नथी. पोताना आत्माने उपादेय केम करवो तेनी आ
वात छे.
* अरे बापु! तारा तत्त्वने कई रीते उपादेय करवुं तेनी पण तने खबर नथी! तें
रागादि परभावने उपादेय मान्या, पण तारा ज्ञानानंदस्वरूप परमात्माने
उपादेय करतां तने न आवडयुं!
* अति आसन्नभव्य एवा सम्यग्ज्ञानी मुमुक्षु जीवो अंतरद्रष्टि वडे पोताना
परमात्मतत्त्वने ज उपादेय करे छे. ते परमात्मतत्त्व केवुं छे? – के जयवंत छे. सर्वे
तत्त्वोमां ते ज एक उत्कृष्ट सारभूत तत्त्व छे. समस्त परभावोथी ते दूर छे, ने
सुखसागरनुं पूर छे. मिथ्यात्वादि पापोने छेदवा माटे ते कुहाडा समान छे, अने
शुद्धज्ञाननो ते अवतार छे. आवुं सारभूत परमात्मतत्त्व पोतामां जयवंत वर्ते छे.
* शुद्ध आत्माने जेणे पोतामां जयवंत स्वीकार्यो तेणे परभावनो पोतामां अभाव
कर्यो छे, तेनो तो नाश कर्यो. निर्मळ पर्याय थई पण ते क्षणिक पर्यायना भेद
उपर एनुं लक्ष नथी. ते पर्यायने अंतरमां वाळीने शुद्ध समयसार उपर ज मीट
मांडी छे. आवो शुद्धआत्मा ते ज जगतमां सर्वोत्कृष्ट छे, ते ज आपणुं ध्येय छे,
ते ज सारभूत छे, ते ज आनंदनो दातार छे, संसारना सर्व कलेशथी ते पार छे.
* अहो, आवुं तारुं तत्त्व, तारामां ज हाजर छे, तेने तुं लक्षमां तो ले. आवा
निर्णयमां ज्ञानने रोकवा जेवुं छे. बहारनी विद्यामां तो कांई सार नथी, ते तो
असार छे; साररूप तो शुद्धआत्मा छे.
* तारुं सहज चैतन्यतत्त्व छे ते सुखनुं ज बनेलुं छे, ते रागनुं बनेलुं नथी, तेमां
प्रीति के अप्रीति एटले राग के द्वेष नथी, ए तो सहज आनंदनुं ज धाम छे.
राग तो बहिर्मुख छे, ने चैतन्यतत्त्व तो सर्वथा अंतर्मुख छे. आवा पोताना
तत्त्वने अनुभवगोचर करवुं ते डाह्या पुरुषोनुं कर्तव्य छे. तेओ ज खरेखर डाह्या
अने विचारवंत छे के जेओ अंतरमां पोताना सहज तत्त्वनी रुचि करीने तेने
अनुभवगोचर करे छे.
जेणे सुखनुं ज बनेलुं एवुं पोतानुं शाश्वतपद देख्युं ते संसारना
दुष्कृतरूप सुखने केम वांछे? आकाश जेवो अकृत आत्मा ते सुखामृतनो समुद्र
छे, तेनी रुचि करतां ज संसारना सुखोनी वांछा छूटी जाय छे. चैतन्यनी सुखनी
सन्मुख थतां