: १४ : आत्मधर्म : जेठ : २४९७
संसारनां सुखो पण एकांत दुःख ज लागे छे.
* अहो, अंतर्मुख थईने जेओ आ परम तत्त्वनी भावनारूपे परिणमे छे. ते भव्य
जीवो भवदुःखथी छूटीने मोक्षसुखने पामे छे. आवुं तत्त्व दरेक जीवमां सत् छे;
तेनी भावना करतां भवनो नाश थाय छे. राग वडे तेनी भावना नाश थाय छे.
राग वडे तेनी भावना न थाय, तेमां अंतर्मुख परिणति वडे ज तेनी भावना
थाय छे; आ भावना राग वगरनी छे, ने मोक्षनुं कारण छे.
* सिद्ध लोकमां जेवा सिद्धभगवंतो निज गुण सहित बिराजे छे, तेवा ज निज
गुण सहित तारुं तत्त्व पण तारामां ज बिराजी रह्युं छे. आवा तत्त्वनी भावना
रूपे परिणमेला जीवो वंदनीय छे.
* धर्मीनुं ध्येय पोतामां ज छे, बहारमां नथी. धर्मी जाणे छे के सर्वे विभाव गुण–
पर्यायोथी रहित शुद्ध अंतःतत्त्व रूप मारुं स्वद्रव्य ज मारे उपादेय छे
* –आवा उपादेय तत्त्वने नककी करीने तेनी सन्मुख ढळ्यो त्यां समस्त विभाव
भावोनुं लक्ष छूटी गयुं एटले ते हेय थई ज गया. आने हेय करुं एवा विकल्प
वडे कांई परभाव छूटता नथी. शुद्ध स्वद्रव्यनुं ग्रहण थतां परभावो छूटी जाय छे.
बापु! बीजा भावो तो तें अनंतवार कर्यो छे, हवे आ तारा पोताना
शुद्धतत्त्वनी भावना कर तो तेमांथी परम आनंदना फुवारा छूटशे. अहो, आवुं
मारुं तत्त्व! – एम अंतरमां विचार अने निर्णय करीने तेनो अनुभव करतां
स्व संवेदन – महिमा
अहा, आत्माना स्वसंवेदननो अपार महिमा छे. बधा
गुणोनो रस स्वसंवेदनमां समाय छे. स्वसंवेदनवडे मोक्षनां द्वार
खुल्ली जाय छे. आ स्वसंवेदनमां बीजा कोईनुं अवलंबन नथी;
ए राग वगरनुं छे ने ईन्द्रियातीत महा आनंदथी भरेलुं छे.