: १६ : आत्मधर्म : जेठ : २४९७
राजाना गुणनी आवी प्रशंसा सांभळीने वासव नामना एक देवने ते नजरे
जोवानुं मन थयुं...... अने ते स्वर्गमांथी ऊतरीने मनुष्यलोकमां आव्यो.
* * *
उदायनराजा एक मुनिराजने देखीने भक्तिपूर्वक आहारदान माटे पडगाही रह्या
छे: पधारो.....पधारो....पधारो...राणीसहित उदायन राजा नवधाभक्तिपूर्वक मुनिराजने
आहारदान देवा लाग्या.
अरे, पण आ शुं! घणा माणसो त्यांथी दूर भागवा लाग्या; घणा माणसो मुख
आगळ कपडुं ढांकवा लाग्या. केमकेम ए मुनिना काळा – कुबडा शरीरमां भयंकर कोढनो
रोग हतो ने तेमांथी असह्य दुर्गंध छूटती हती; हाथपगना आंगळांमांथी परु वहेतुं हतुं.
परंतु राजाने तो एनुं कांई लक्ष नथी; ते तो प्रसन्न थईने परम भक्तिथी
एकचित्ते आहारदान दई रह्या छे, ने पोताने धन्य माने छे के, अहा! रत्नत्रयधारी
मुनिराज मारा आंगणे पधार्या! एमनी सेवाथी मारुं जीवन सफळ छे.
एवामां मुनिना पेटमां एकाएक उछाळो आव्यो, ने एकदम ऊलटी थई; ते
गंदी ऊलटी राजा – राणीना शरीर उपर पडी. एकदम गंधाती उलटी पोताना उपर
पडवा छतां राजा – राणीने जरापण ग्लानि न थई, के मुनिराज प्रत्ये जरापण
अणगमो न आव्यो. पण अत्यंत सावधानीथी तेओ मुनिराजनुं दुर्गंधी शरीर साफ
करवा लाग्या, अने एम विचारवा लाग्या के अरेरे! अमारा आहारदानमां कांईक भूल
थई गई लागे छे के जेने कारणे मुनिराजने आटलुं बधुं कष्ट पड्युं.... मुनिराजनी पूरी
सेवा अमाराथी न थई शकी....
हजी तो राजा आ विचारे छे, त्यां तो ते मुनि एकाएक अलोप थई गया, ने
तेमना स्थाने एक देव देखायो; अत्यंत प्रशंसापूर्वक तेणे कह्युं: ‘हे राजन! धन्य छे
तमारा सम्यकत्वने, अने धन्य छे तमारी निर्विचिकित्साने! ईन्द्रमहाराजे तमारा गुणनी
जेवी प्रशंसा करी हती एवा ज गुण में नजरे जोया. राजन्! मुनिना वेशे हुं ज तमारी
परीक्षा करवा आव्यो हतो. धन्य छे आपना गुणोने...’ एम कहीने देवे तेने नमस्कार कर्यां.
खरेखर कोई मुनिराजने कष्ट नथी थयुं – एम जाणीने राजानुं चित्त प्रसन्न थयुं