: जेठ : २४९७ आत्मधर्म : २१ :
जीवनी पर्याय छे एटले तेनो कर्ता पण जीव छे, ने पुद्गलकर्म तेनुं कर्ता खरेखर
नथी.
हवे जीवनी पर्यायमां जे विकार छे तेनुं कर्तृत्व पण तेनी पर्यायमां ज छे, – अने
एम जाणवुं ते कांई मिथ्यात्व नथी, ते तो पर्यायनुं यथार्थ ज्ञान छे.
साथे मुख्य वात ए छे के, पर्यायमां विकारनुं जे कर्तृत्व छे ते जीवनो मूळ
स्वभाव नथी; जीवना मूळ ज्ञानस्वभावनी द्रष्टिथी ज्यारे जोवामां आवे त्यारे जीवमां
रागादि विकारनुं कर्तृत्व नथी. तेमज ते स्वभाव तरफ झुकेली जे शुद्धपर्याय छे ते
शुद्धपर्यायमां पण रागादिनुं कर्तृत्व नथी. आ रीते शुद्धस्वभावने अनुभूतिमां लईने
रागादिना अकर्तापणे परिणमवुं ते धर्मीनुं कार्य छे. (अने आ रीते धर्मीनी दशानुं
रागथी भिन्नपणुं बताववा, तथा तेनुं कर्तृत्व छोडावीने शुद्धस्वभावनी द्रष्टि कराववा ते
रागादिनो कर्ता जीव नथी एम पण कहेवाय छे.)
धर्मीने साधकभाव वखते एक पर्यायमां ज्ञान अने राग बंने परिणाम एक
साथे वर्तता होय छतां तेमां जे ज्ञानपरिणति छे तेमां रागनुं कर्तृत्व नथी; ते ज्ञान
परिणति रागथी जुदी ज छे – आम बंनेनी भिन्नतानी सूक्ष्म ओळखाण ते अपूर्व भेद
ज्ञान छे. एवा भेदज्ञानना बळे वीतरागता थतां रागनुं कर्तृत्व कोई प्रकारे रहेतुं नथी,
राग उत्पन्न ज थतो नथी. आ रीते द्रव्य–पर्यायरूप वस्तुधर्मने, अने तेमां स्वभाव तथा
विभावने बराबर जाणतां कोईप्रकारे मिथ्यापणुं रहेतुं नथी, सम्यग्ज्ञान थाय छे, ने
ज्ञानना बळे विकार छूटीने शुद्धता थती जाय छे.
(– विशेष आवता अंके)
रत्नत्रयनो भक्त
रत्नत्रयनो जे भक्त छे एटले के रत्नत्रयनो जे आराधक छे
ते जीव पोताना गुणधाम आत्माने ज ध्यावे छे, आत्माथी भिन्न
अन्य कोई पदार्थने ते ध्येयरूप मानतो नथी. रत्नत्रयनी आराधना
तो शुद्धआत्माना ज आश्रये थाय छे. तेथी शुद्धआत्माने जे ध्यावे छे
ते ज रत्नत्रयनो भक्त छे, ते ज मोक्षमार्गनो साधक छे.