स्वसंवेदनप्रत्यक्ष छुं अने नमस्कार करवा योग्य जे भगवान छे तेओए शुद्धोपयोगना
सामर्थ्यथी चार घातीकर्मोनो क्षय कर्यो छे, ने सर्वज्ञ परमेश्वर थया छे, तथा
शुद्धोपयोगरूप धर्मपरिणतिना ज कर्ता छे, रागना कर्ता नथी, ने राग करवानो तेमनो
उपदेश नथी. आ रीते ओळखीने, एटले पोतामां पण रागनुं कर्तृत्व छोडीने अने
शुद्धोपयोगरूप धर्मनुं कर्तृत्व प्रगट करीने, भाव नमस्कार कर्यां छे.
थईने पोते पोताना आत्मानुं स्वसंवेदन करे. ते अरिहंत तरफना विकल्पमां ऊभो नथी
रहेतो पण शुद्ध चेतन तत्त्वने लक्षमां लईने, तेमां पर्यायने अंतर्लीन करीने निर्विकल्प
अनुभवसहित सम्यग्दर्शन प्रगट करे छे. जैनदर्शननी शैली ज कोई अनेरी छे. अंतरना
स्वभावमांथी मार्गनी शरूआत थाय छे; बहारना लक्षे मार्गनी शरूआत थती नथी.
व्यवहार नमस्कार कर्यां, आम निश्चय – व्यवहारनी अलौकिक संधिपूर्वकनी वात छे.
भगवानने नमस्काररूप व्यवहार छे. अहो! कुंदकुंदस्वामीनी अनुभववाणी तो सर्वज्ञ
परमात्मानी वाणी साथे तुलना थाय एवी छे. आचार्य पोते पंचपरमेष्ठीपदमां त्रीजा
पदमां बिराजमान छे. तेओ पंचपरमेष्ठीने नमस्काररूप अपूर्व मंगळ करे छे. आ तो
मोक्षलक्ष्मीनो स्वयंवर छे. पोते मोक्षलक्ष्मीने वरवा जाय छे त्यां पंचपरमेष्ठी भगवंतोने
पोताना आंगणे बोलावे छे: अहो, पंचपरमेष्ठी भगवंतो! अहो, विदेहमां बिराजतां
सीमंधरादि भगवंतो! अने गणधर भगवंतो! आप सौ वीतरागताना आ आनंद–
उत्सवमां पधारो....पधारो....पधारो....मारी शुद्ध चैतन्यसत्तानो निर्णय करीने तेमां हुं
आपने पधरावुं छुं....ने समस्त रागादि परभावोने जुदा करुं छुं.