Atmadharma magazine - Ank 332
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: ३२ : आत्मधर्म : जेठ : २४९७
–आवा मंगलपूर्वक मोक्षने साधवानो आ मंगलस्थंभ रोपाय छे.
सीमंधर भगवान पासे जईने कुंदकुंदाचार्य भव्यजीवोने माटे आवी ऊंची भेट
लाव्या छे. जेम पिता परदेश जईने आवे त्यारे बाळको माटे भाग लई आवे छे तेम
कुंदकुंद आचार्य–आपणा परम पिता, विदेहक्षेत्रे जईने भरतक्षेत्रना बाळको माटे
शुद्धात्माना आनंदनी प्रसादी लाव्या छे. ते आ समयसार द्वारा आपे छे के ले, तारा
माटे आवो शुद्धआत्मा अमे लाव्या छीए.... तेने तुं स्वानुभवगम्य कर.
सुखी सन्त
रागी–द्वेषी जीवोने सुख केवुं? सुख तो वीतरागी सन्तोने
छे. आपणामांथी ज उत्पन्न थयेला सत्य सुखने अज्ञानी जीवो
ओळखी शकता नथी. एटले बाह्य पदार्थोमांथी सुख लेवा मांगे छे.
ब्रह्मजीवन
आत्मामां ज साचुं सुख छे –एम समजीने आत्माना अतीन्द्रिय
सुखनी जेने अभिलाषा जागी छे अने बाह्य–विषयोमां क््यांय सुख नथी
एम समजीने सर्व विषयो जेने विरस लाग्या छे; मारा असंग चैतन्य
तत्त्वने कोई परद्रव्यनो संग नथी, परना संगथी मारामां सुख नथी पण
परना संग वगर मारा स्वभावथी ज मारुं सुख छे – एम जे जीवे पोताना
अतीन्द्रिय सुखस्वभावनी रुचि ने लक्ष कर्युं छे अने चैतन्यना रंगथी सर्वे
ईन्द्रियविषयोनो रंग ऊडी गयो एवा जीवने खरुं ब्रह्मजीवन–खरुं
आत्मजीवन प्रगटे छे. आवा आत्मलक्षी ब्रह्मजीवन वडे सर्वे गुणोनी
खीलवट थाय छे.