Atmadharma magazine - Ank 332
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: जेठ : २४९७ आत्मधर्म : ५ :
सर्वज्ञने खरेखर त्यारे ओळख्या के ज्यारे स्वसन्मुख थईने आत्माना एवा
सर्वज्ञस्वभावनो स्वीकार कर्यो.
* आवा सर्वज्ञस्वभावनो भरोसो करवा जाय ते रागमां ऊभो न रहे. रागथी
जुदो थईने ज्ञानस्वभावमां आव्यो त्यारे अरहिंतना मार्गमां आवी गयो; ते
अल्पकाळमां अरिहंत थशे – एम ज अरहिंतोए ज्ञानमां दीठुं छे. एने अनंत
भव होतां नथी, ने भगवान पण एम ज देखे छे.
* धर्मीजीव साधक थईने केवळज्ञानने बोलावे छे. जे स्वभावनी सन्मुखता वडे
सम्यग्ज्ञानरूपी बीज ऊगी, ते ज स्वभावनी सन्मुखता वडे केवळज्ञानरूपी
पूनम थवानी छे. जगतमां सर्वज्ञो छे ने हुं पण सर्वज्ञता तरफ ज जई रह्यो छुं
– एम धर्मीने निःशंकता छे.
* अहा, लोकालोकने जाणवानुं सामर्थ्य तो मारी शक्तिमां बेठुं छे. आवा जाणनार
स्वभावने श्रद्धामां लीधो त्यां धर्मीने परज्ञेय तरफनी आकुळता रहेती नथी.
सर्वज्ञता तो मारा स्वघरमां ज पडी छे.
* आत्मानी प्रतीतमां सर्व गुणोनी प्रतीत आवी जाय छे. गुणोनी प्रतीत माटे
गुणोना भेद पाडवा नथी पडता. गुणना भेद पाडतां तो विकल्प थाय छे.
निर्मळ शक्तिमां विकल्प वडे निर्मळशक्ति प्रतीतमां आवती नथी.
* आत्मा पोते पोताने स्वसंवेदन–प्रत्यक्ष थाय छे; तेना स्वसंवेदनमां कोई
बीजानुं आलंबन नथी. जेने रागमां लाभबुद्धि छे एटले के रागमां एकत्वबुद्धि
छे तेने आत्मानुं स्वसंवेदन थतुं नथी. स्वसंवेदन रागथी अत्यंत जुदुं छे.
* स्वसंवेदनमां तो अतीन्द्रिय आनंद छे, अने तेने ‘आत्मा’ कह्यो छे;
स्वसंवेदनमां स्वभावनी स्वभावनी एकता थतां विकल्प साथेनी एकता तूटी
जाय छे.
* पोताना शुद्ध गुण–पर्यायोथी जे लक्षित थाय छे तेटलो ज आत्मा छे; आ शुद्ध
प्रमाणनो विषय छे; तेमां रागादि परभावो न आवे.
* प्रकाशत्व स्वभावने लीधे आत्मा स्वयं प्रकाशमान एवा स्पष्ट स्वसंवेदनरूप
छे. पोतानी चेतनावडे पोते पोताने अत्यंत स्पष्ट प्रकाशे छे. आत्माने पोते