Atmadharma magazine - Ank 332
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म : जेठ : २४९७
पोताने जाणवामां कोई रागनुं के ईन्द्रियोनुं आलंबन नथी. रागना अने
ईन्द्रियोना आलंबनथी जे जणाय ते आत्मा नहि. स्वानुभवमां स्वयं पोते
पोताने प्रत्यक्ष रूप करे छे – एवो प्रकाशस्वभावी आत्मा छे.
* बापु! ईन्द्रियो जड छे, तेना वडे तारुं ज्ञान थतुं नथी. ईन्द्रियोनुं आलंबन लेवा
जईश तो तारा आत्माने जाणी नहि शके. माति–श्रुतज्ञान चोथा गुणस्थाने पण
ईन्द्रिय – मननुं आलंबन छोडीने, आत्मसन्मुख थईने अतीन्द्रिय – प्रत्यक्षरूप
थईने पोते पोताना आत्मानो अनुभव करे छे. मति–श्रुतज्ञान पण निर्विकल्प
थईने सीधा आत्मस्वभावमां पहोंची वळे छे. आवुं स्वसंवेदन ज्ञान प्रगटे
त्यारे धर्म थयो कहेवाय.
* अरे, तारा ज्ञानथी तुं पोते छानो रहे – ए केम बने? आत्मा जेमां प्रत्यक्षरूप
न थाय – ए ज्ञान नथी. सम्यग्दर्शन त्यारे थाय छे के ज्यारे ज्ञान अंतर्मुख
थईने पोते पोताना आत्माने प्रत्यक्ष स्वसंवेदनरूप करे छे.
* स्वसंवेदनप्रत्यक्षपणुं तेमां रागनुं – व्यवहारनुं आलंबन नथी, तेमां परमार्थ
स्वभावनुं ज आलंबन छे. आवुं प्रत्यक्षपणुं ते स्वसत्ता अवलंबी छे, तेथी ते
निश्चय छे; अने परोक्षपणुं रहे ते परसत्तावलंबी होवाथी व्यवहार छे.
* हजी तो आत्मा पोते पोताने प्रत्यक्ष अनुभवगम्य थाय छे – एवी स्वघरनी
जेने खबर न होय तेने धर्म क््यांथी थाय? ने परघरमां भ्रमण क््यांथी अटके?
आत्मानी स्वसंवेदन शक्तिने जे ओळखे ते पोताना स्वानुभव माटे कोईपण
रागादि परभावनुं अवलंबन नहीं; अने जे परभावनुं आलंबन माने ते
आत्मशक्तिने जाणे नहीं.
* ते ज खरो विद्वान छे के जे पोताना ज्ञानने अंतरमां वाळीने पूर्णनंद–सर्वज्ञ
स्वभावी आत्माने प्रतीतरूप तथा स्वसंवेदनरूप करे छे. आत्माना स्वसंवेदन
वगरनुं जेटलुं जाणपणुं छे ते तो बधुं थोथां छे. जगतना जादुमां जीव मोहाई
जाय छे पण पोताना चैतन्यनो महान चमत्कार छे तेनी तेनी खबर नथी.
अहो, चैतन्य चमत्कार जगतमां सर्वोत्कृष्ट छे.... जेनुं चिंतन करतां अपूर्व
आनंद थाय छे.
* चैतन्यना स्वसंवेदननी अद्भुत महानता छे; ने मिथ्यात्वमां अत्यंत हीनता छे.
– पण जगतने एनी खबर नथी.