Atmadharma magazine - Ank 333
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : अषाढ : र४९७
थाय छे. वस्तु पोताना ज्ञानमां आवे त्यारे ज तेनो साचो स्वीकार थाय. ज्ञान वगर
अज्ञानमां स्वीकार कोनो? आ रीते स्वसन्मुख थईने ज शुद्धआत्मानो स्वीकार थाय
छे. माटे कह्युं के समस्त अन्य द्रव्योथी भिन्नपणे उपासवामां आवता ज्ञायकभावने
‘शुद्ध’ कहेवाय छे. शुद्धआत्मानी उपासनामां अनंत गुणोनी निर्मळपर्याय समाय छे.
प्रश्न:– वस्त्र पहेर्यां होय ने आवा आत्मानो निर्विकल्प अनुभव थाय?
उत्तर: – हा; आवा आत्मानो निर्विकल्प अनुभव सवस्त्रदशामां पण थई
शके छे; अने आवो अनुभव करे त्यारे ज सम्यग्दर्शन थाय छे. पछी मुनिदशामां तो
घणो उग्र निर्विकल्प अनुभव वारंवार थाय छे. गृहस्थने तो कोई कोई वार ज
निर्विकल्प अनुभव थाय छे. पण निर्विकल्प अनुभव थाय त्यारे ज धर्मनी शरूआत
थाय छे, एना वगर धर्म होतो नथी.
आत्मा ‘ज्ञायकभाव’ छे.
‘ज्ञायक’ परने जाणे छे –एवो ज्ञेयज्ञायकपणानो व्यवहार छे; तोपण ज्ञेयनी
उपाधि तेने नथी, ज्ञेयो छे माटे आने ज्ञायकपणुं छे. एम नथी, ज्ञेयकृत अशुद्धता
तेने नथी; परज्ञेय तरफ न जुए ने पोते पोताना स्वरूपने ज स्वसन्मुखपणे प्रकाशे
त्यारे पण ज्ञायक तो ज्ञायक ज छे. – परज्ञेयनी अपेक्षा ज्ञायकने नथी. परसन्मुख
थईने जाणे एवो तेनो स्वभाव नथी; माटे ज्ञानमां परनी उपाधि नथी.
अहो, ज्ञायकनुं ज्ञायकपणुं रवत: पोताथी ज छे. परज्ञेयने जाणती वखते पण
ते पोताथी ज ज्ञायक छे; ने परज्ञेयने न जाणे त्यारे स्वज्ञेयने पोताने स्वयं प्रकाशतो
थको ते पोते ‘ज्ञायक’ ज छे. स्व–परप्रकाशकशक्ति स्वयं पोताथी छे, तेमां परज्ञेयनी
उपाधि के आलंबन नथी.
आत्मामां वीतरागताने जे रचे ते ज साचुं आत्मवीर्य छे. बाकी रागादि
विकारने रचीने संसारमां रखडे तेने साचुं आत्मवीर्य कहेता नथी. अहीं तो चारे
गतिनां दुःखथी डरीने जे मुमुक्षु आत्मानुं हित करवा मांगे छे तेनी वात छे. चारे गति
दुःख छे. चार गतिनो जेने भय होय ते तेना कारणरूप पुण्यने केम ईच्छे छे? जेने
पुण्यमां मीठाश लागे छे, पुण्यनो आदर छे तेने चारे गतिनो भय नथी लाग्यो, तेने
नरकनो भय छे पण स्वर्गनी तो ईच्छा छे. जे पुण्यने ईच्छे छे ते स्वर्गनी गतिने
ईच्छे छे ने जे स्वर्गने ईच्छे छे ते संसारने ज ईच्छे छे. आत्माना मोक्षने जे ईच्छे ते