अज्ञानमां स्वीकार कोनो? आ रीते स्वसन्मुख थईने ज शुद्धआत्मानो स्वीकार थाय
छे. माटे कह्युं के समस्त अन्य द्रव्योथी भिन्नपणे उपासवामां आवता ज्ञायकभावने
‘शुद्ध’ कहेवाय छे. शुद्धआत्मानी उपासनामां अनंत गुणोनी निर्मळपर्याय समाय छे.
उत्तर: – हा; आवा आत्मानो निर्विकल्प अनुभव सवस्त्रदशामां पण थई
घणो उग्र निर्विकल्प अनुभव वारंवार थाय छे. गृहस्थने तो कोई कोई वार ज
निर्विकल्प अनुभव थाय छे. पण निर्विकल्प अनुभव थाय त्यारे ज धर्मनी शरूआत
थाय छे, एना वगर धर्म होतो नथी.
तेने नथी; परज्ञेय तरफ न जुए ने पोते पोताना स्वरूपने ज स्वसन्मुखपणे प्रकाशे
त्यारे पण ज्ञायक तो ज्ञायक ज छे. – परज्ञेयनी अपेक्षा ज्ञायकने नथी. परसन्मुख
थईने जाणे एवो तेनो स्वभाव नथी; माटे ज्ञानमां परनी उपाधि नथी.
थको ते पोते ‘ज्ञायक’ ज छे. स्व–परप्रकाशकशक्ति स्वयं पोताथी छे, तेमां परज्ञेयनी
उपाधि के आलंबन नथी.
गतिनां दुःखथी डरीने जे मुमुक्षु आत्मानुं हित करवा मांगे छे तेनी वात छे. चारे गति
दुःख छे. चार गतिनो जेने भय होय ते तेना कारणरूप पुण्यने केम ईच्छे छे? जेने
पुण्यमां मीठाश लागे छे, पुण्यनो आदर छे तेने चारे गतिनो भय नथी लाग्यो, तेने
नरकनो भय छे पण स्वर्गनी तो ईच्छा छे. जे पुण्यने ईच्छे छे ते स्वर्गनी गतिने
ईच्छे छे ने जे स्वर्गने ईच्छे छे ते संसारने ज ईच्छे छे. आत्माना मोक्षने जे ईच्छे ते