Atmadharma magazine - Ank 333
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : र४९७ आत्मधर्म : १५ :
संसारना कारणरूप पुण्यरागने कदी भलो न माने; ते तो चैतन्यस्वभावना आश्रये
वीतरागभावने ज भलो माने छे. शुभरागनो कण पण धर्मीने कषायनी अग्नि जेवो
लागे छे. क््यां वीतरागतानी शांति! ने क्यां रागनी आकुळता! जेम शीतळ पाणीमां
पोषायेलुं माछलुं, ते अग्निमां तो दाझे ने उनी रेतीमां पण ते दाझे तेम चैतन्यना
शुद्धोपयोगनी जे वीतरागी शीतळशांति, – तेमां पोषायेला संतोने अशुभनी तो शी
वात, पण शुभमांये आकुळतानी कषायअग्नि जेवी बळतरा थाय छे. धर्मी तेने पण
छोडीने शुद्धोपयोगरूप समभावने प्राप्त करवा मांगे छे, ने ते ज मोक्षमार्ग छे.
कुंदकुंदाचार्यदवे कषायकणरूप शुभने छोडीने अंतरमां शुद्धोपयोगरूप
साम्यभावने अंगीकार कर्यो, एटले आत्मामां साक्षात् मोक्षमार्ग परिणमाव्यो. जुओ
मोक्षमार्ग प्रगटे त्यां जीवने पोताने तेनी खबर पडे छे. पहेलांं निर्विकल्प अनुभूति
सहित सम्यग्दर्शन थाय छे त्यारे मोक्षमार्ग शरू थाय छे. अहीं तो ते सम्यग्दर्शन
उपरांत चारित्रदशानी, अने तेमां पण शुद्धोपयोगनी वात छे. शुद्धोपयोग ज साक्षात्
मोक्षमार्ग छे.
(– जयपुर – प्रवचनो: चालु: विशेष माटे जुओ पानुं ३१)
अडोल साधक
जगतमां प्रतिकूळताना डुंगरा तूटी पडता होय, अज्ञानीओ
सत्यधर्मनो विरोध करता होय, अन्याय थतो होय, छतां ज्ञानमां
विकल्प करवानो के आकुळता करवानो स्वभाव नथी; शुं सिद्ध
भगवंतो आकुळता करे छे? ना; प्रतिकूळताना वायरामां एवी
ताकात नथी के ज्ञानना पहाडने डगावी द्ये, अनाकुळपणे रहेवानो
ज्ञाननो स्वभाव छे. आवा बेहद वीतराग शांतस्वभावथी आत्मा
भरेलो छे. अहा, आत्मस्वभाव तो वीतरागी निर्मळ कार्यने ज
करनारो ने आनंदनो ज देनारो छे. – आवी आत्म साधनाना पंथे
चडेला साधकने जगतनी कोई प्रतिकूळता डगावी शकती नथी के
मुंझवी शकती नथी. (आत्मवैभव)