: १६ : आत्मधर्म : अषाढ : र४९७
“नाटक सुनत हिये फाटक खुलत है”
समयसार नाटक द्वारा शुद्धात्मानुं श्रवण करतां
हैयानां फाट खुल्ली जाय छे
(समयसार – नाटकनां अध्यात्मरसझरतां प्रवचनोमांथी (लेखांक: ६)
जिनशास्त्रोमां छ द्रव्योनुं वर्णन कर्युं छे, तेमां जीवनुं स्वरूप जाणीने तेनो
अनुभव करवो. जीवादि नवतत्त्वोनुं साचुं ज्ञान ते पण भेदज्ञाननुं अने आत्म
अनुभवनुं कारण छे. तेमां प्रथम जीवतत्त्व केवुं छे? –
समता रमता ऊरधता ज्ञायकता सुखभास।
वेदकता चैतन्यता ए सब जीव विलास।। २६।।
पहेलांं २० मा श्लोकमां छ द्रव्यमांथी जीवद्रव्यनुं वर्णन हतुं; अने आ
श्लोकमां नवतत्त्वमांथी जीवतत्त्वनुं वर्णन छे.
समता एटले वीतरागभाव तेमां रमणतारूप लीनता, ते जीवनो स्वभाव
छे. रागमां रमे एवो जीवनो स्वभाव नथी, वीतरागी समभावमां रमे एवो जीवनो
स्वभाव छे; वळी ऊर्ध्वगमन तेनो स्वभाव छे, मोक्ष थतां ऊर्ध्वगमन करीने
सिद्धालयमां वसे छे. वळी जीव ज्ञायकस्वभाव छे; ज्ञायकपणुं ज एनो स्वभाव छे.
‘रमता’ एटले रम्यपणुं; जगतमां आत्मा ज रम्यवस्तु छे, तेनाथी ज बधुं
शोभे छे. अने आत्माने स्वभावनुं एवुं ऊर्ध्वपणुं एटले के मुख्यपणुं छे के तेनी
विद्यामनतामां ज जगतना पदार्थो जणाय छे, एटले जगतना पदार्थोमां सौथी
आगळ सौथी मुख्य सौथी प्रधान वस्तु आत्मा ज छे.
श्रीमद् राजचंद्रजीए आ समयसार–नाटक वांचीने आ २६ अने २७ मा
श्लोकनो सरस अध्यात्मअर्थ लख्यो छे, ते नीचे प्रमाणे छे –
‘जीव’ नामनो पदार्थ जेवो छे तेवो श्री तीर्थंकर परमदेवे स्पष्ट जाण्यो