: अषाढ : र४९७ आत्मधर्म : १७ :
छे, अनुभव्यो छे, अने ते ज प्रकारे प्रगट कह्यो छे. अमे पोते स्पष्ट प्रगटणे आवा
आत्मा छीए, ने तमारा आत्माने तमे पण आवो ज समजो.
आत्मा केवो छे? प्रथम तो ‘समता’ लक्षणथी युक्त छे. वर्तमानमां जेवी
असंख्य प्रदेशात्मक चैतन्यस्थिति छे तेवी ज त्रणेकाळ तेनी स्थिति छे. तेनुं
असंख्यप्रदेशीपणुं, चैतन्यपणुं, अरूपीपणुं वगेरे समस्त स्वभावो कोईपण
काळे छूटता नथी, सदा एवाने एवा रहे छे एवुं ‘समणपुं’ एटले के ‘समता’
आत्मानुं लक्षण छे.
वळी आत्मामां ‘रमता’ छे, रमता एटले रम्यपणुं, रमणीयता, सुंदरता,
श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के आवो रम्य जे आत्मा, तेमां हे जीव! तुं रमक था.
त्वराथी तेमां रमण कर, ने बीजामां रमण छोड. रमता एटले रमणीयपणुं
(रम्यस्थान) तो आत्मामां छे, बीजुं कोई रम्य स्थान नथी.
पशु–पक्षी, मनुष्यादि देहने विषे, वृक्षादिने विषे जे कांई रमणीयपणुं जणाय
छे, अथवा जेना वडे ते सर्व प्रगट स्फुर्तिवाळा जणाय छे, प्रगट सुंदरपणा समेत
लागे छे, ते रमणीयपणुं एटले के रमता – रम्यता जीवने लीधे छे; जेना विना आखुं
जगत शून्यवत् भासे छे एवुं रम्यपणुं जेनुं लक्षण छे ते जीव छे. जीव न होय तो
आ शरीर केवुं लागे? जीव वगरनुं शरीर–मडदुं तो जोवुंय न गमे. जीवना
अस्तित्वथी ज बधी शोभा छे. आ रीते जीवमां ज रम्यपणुं छे. आवा रम्य
आत्माने जाणीने तेमां त्वराथी रमक थाओ, ने परभावोमां रमणता छोडो.
हवे ‘ऊर्ध्वता’ ना अर्थमां श्रीमद् राजचंद्रजी लखे छे के – ‘कोई पण जाणनार,
क््यारे पण, कोई पण पदार्थने पोताना अविद्यमानपणे जाणे एम बनवा
योग्य नथी; प्रथम पोतानुं विद्यमानपणुं घटे छे, अने कोईपण पदार्थनुं ग्रहण
त्यागादि के उदासीन ज्ञान थवामां पोते ज कारण छे; बीजा पदार्थना
अंगीकारमां, तेना अल्प मात्र पण ज्ञानमां प्रथम जे (जीव) होय तो ज
(ज्ञान) थई शके, – एवो सर्वथी प्रथम रहेनारो (एटले के सर्वथी मुख्य) जे
पदार्थ छे ते जीव छे. तेने गौण करीने एटले तेना विना कोई कांई पण
जाणवा ईच्छे – तो ते बनवा योग्य नथी. मात्र ते ज मुख्य होय तो ज बीजुं
कंई जाणी शकाय. आवो प्रगट ‘ऊर्ध्वता–धर्म’ जेने विषे छे ते पदार्थने श्री
तीर्थंकर ‘जीव’ कहे छे. ’