: २० : आत्मधर्म : अषाढ : र४९७
श्रीमद् राजचंद्रजीए सहेली भाषामां जीवना स्वरूपनुं घणुं सरस स्पष्टीकरण
कर्युं छे. ज्ञानीनी अंदरनी दशाने विरला लोको ज ओळखे छे. ज्ञानीना जे न्यायो
आत्माने स्पर्शीने नीकळता होय ते शास्त्रनी धारणा करतां जुदी जातना होय छे.
हवे ‘सुखभास’ शब्दनो अर्थ कहे छे, तेमां जीवना सुखस्वभावनी सिद्धि करे
छे– (ते आवता अंकमां वांचशोजी.)
उत्तम पुरुषोना शुद्ध हृदयसरोवरमां कोण बिराजे छे?
उत्तम पुरुषोना हृदयसरोवरमां कारणआत्मा बिराजे छे, शोभे छे.
उत्तम पुरुष कोण छे?
जेना अंतरमां रागादि परभावो नथी बिराजता, पण परमब्रह्म परमात्मा
पोते जेना अंतरमां बिराजे छे – एवा धर्मी जीवो ज उत्तम पुरुष छे. जेना
अंतरमां राग विराजे छे– रागथी जे आत्मानी शोभा माने छे ते जीव उत्तम
नथी पण हीन छे.
उत्तम धर्मात्माओ कोने भजे छे?
अंतरमां बिराजमान पोताना कारणपरमात्माने ज भजे छे.
कारण–परमात्मा कोण छे?
‘ते तुं ज छो’ [सत्वम्]
मोक्षने माटे कोने भजवुं?
अंतरमां बिराजमान पोताना कारणपरमात्माने ज शीघ्र भज.
सिंह जेवा पुरुषार्थवाळा हे भव्यशार्दूल! अंतरमां शुद्धद्रष्टिवडे जेने तुं भजी
रह्यो छे तेने ज तुं ऊग्रपणे शीघ्र भज.
तीक्ष्णबुद्धिवाळा उत्तमपुरुषो एटले के अंतर्मुख बुद्धिवाळा शुद्धद्रष्टि जीवो
पोताना शुद्धात्माने एकने ज भजता थका परमआनंदरूप मोक्षने साधे छे.
आ उत्तम पुरुषोना हृदयनी वात छे; ते जाणीने तुं पण तेने भज.