: २२ : आत्मधर्म : अषाढ : र४९७
त्यारे श्री आचार्यदेवे सम्यकत्वनी द्रढतानो उपदेश आपतां कह्युं के –
आत्मानुं साचुं स्वरूप समजनार सम्यग्द्रष्टि जीव, वीतराग अरिहंतदेव सिवाय
बीजा कोईने देव मानता नथी. जे देव न होय तेने देव मानवा ते देवमूढता छे; एवी
मूढता धर्मीने होती नथी. मिथ्यामतना देवादिक बहारथी गमे तेवा सुंदर देखाता
होय, ब्रह्मा–विष्णु के शंकर जेवा होय – तोपण धर्मीजीव तेना प्रत्ये आकर्षाता नथी.
मथुरानी राजराणी रेवतीदेवी आवा सम्यकत्वनी धारक छे, जैनधर्मनी श्रद्धामां ते
घणी ज द्रढ छे, तेने धर्मवृद्धिना आशीष कहेजो. तथा त्यां बिराजमान सुरत मुनि– के
जेमनुं चित्त रत्नत्रयमां रत छे – तेमने वात्सल्यपूर्वक नमस्कार कहेजो.
–आ प्रमाणे आचार्यदेवे सुरत – मुनिराजने तथा रेवतीराणीने माटे सन्देश
कह्यो, पण भव्यसेन मुनिने तो याद पण न कर्यां, आथी राजाने आश्चर्य थयुं, ने
फरीने पण आचार्य–महाराजने पूछ्युं के बीजा कोईने कांई कहेवानुं छे? पण
आचार्यदेवे एथी विशेष कांई न कह्युं.
आथी ते चंद्रराजाने एम थयुं के शुं आचार्यदेव भव्यसेनमुनिने भूली गया
हशे? –ना, ना; तेओ भूले तो नहीं; तेओ विशिष्ट ज्ञानना धारक छे; तेथी तेमनी
आ आज्ञामां जरूर कांईक रहस्य हशे. ठीक, जे हशे ते त्यां प्रत्यक्ष देखाशे. – एम
समाधान करी, आचार्यदेवना चरणोमां नमस्कार करीने ते मथुरा तरफ विदाय थयो.
मथुरामां आवीने सौ प्रथम तो सुरतमुनिराजनां दर्शन कर्यां; तेओ घणा ज
उपशांत अने शुद्धरत्नत्रयनुं पालन करनारा हता; चंद्रराजाए तेमने गुप्ताचार्यनो
सन्देश कह्यो अने तेमनी वती नमस्कार कर्यां.
चंद्रराजानी वात सांभळीने सुरतमुनिराजे प्रसन्नता व्यक्त करी, अने पोते
पण विनयपूर्वक हाथ जोडीने श्री गुप्तआचार्य प्रत्ये परोक्ष नमस्कार कर्यां.
मुनिवरोनुं एकबीजा प्रत्ये आवुं वात्सल्य देखीने राजा घणो प्रसन्न थयो. सुरत
मुनिराजे कह्युं: हे वत्स! वात्सल्य वडे धर्म शोभे छे. धन्य छे ए रत्नत्रयना धारक
आचार्यदेवने, – के जेमणे आटले दूरथी पण साधर्मी तरीके मने याद कर्यो. शास्त्रमां
खरुं कह्युं छे के –
ये कुर्वन्ति सुवात्सल्यं भव्या धर्मानुरागतः।
साधर्मिकेषु तेषां हि सफलं जन्म भूतले।।
अहो! धर्मना प्रेमवडे जे भव्यजीवो साधर्मीजनो प्रत्ये उत्तम वात्सल्य करे छे
तेमनो जन्म जगतमां सफळ छे.