: अषाढ : र४९७ आत्मधर्म : २९ :
आत्मा समजवानी जिज्ञासा विरलाने जागे छे
भेदज्ञानवडे ज जीव महान थाय छे. हे जीव! तुं एवो द्रढ निर्णय कर के
जरूर निर्विकल्प अनुभव थाय.
गत जेठ मासमां गुरुदेव चारदिवस भावनगर पधार्या; त्यारे टाउनहोलमां
स. गा. ७२ उपरना प्रवचनमां कह्युं के ज्ञानस्वभावी आत्मानो चेतकस्वभाव छे;
अने रागादि भावोमां चेतकपणुं नथी एटले के तेनामां स्वने के परने जाणवानो
स्वभाव नथी, ऊल्टुं बीजा वडे ते जणाय छे.
‘हुं राग छुं’ एवी रागने खबर नथी, पण तेनाथी जुदुं एवुं ज्ञान ज तेने
जाणे छे के ‘आ राग छे, ने हुं ज्ञान छुं.’
आ रीते ज्ञानने अने रागने भिन्नस्वभावपणुं छे. एकपणुं नथी. आवुं
भिन्नपणानुं ज्ञान करे ते जीव ज्ञानमां रागनो अंश पण भेळवे नहि, एटले तेनुं
ज्ञान रागादि आस्त्रोवोथी निवृत्त थयुं, छूटुं पड्युं. – आवुं थाय त्यारे आत्मा
मोक्षमार्गमां आवे.
एकला शास्त्रना जाणपणावडे आस्रवो अटकता नथी. ज्ञान अंतर्मुख थईने
रागथी भिन्नपणे पोताने अनुभवे त्यारे ज आस्रवो छूटे छे. आत्मानुं ज्ञान थाय
ने रागमां एकताबुद्धि पण रहे एम बनतुं नथी.
जिज्ञासु जीवने एम थाय छे के आ रागादि भावो मने दुःखदायक छे, ने
तेनाथी मारे छूटवुं छे; एटले तेनाथी आत्मा केम छूटे एवो तेने प्रश्न थयो छे.
प्रश्नमां तेने एटली कबुलात तो करी छे के रागादिभावोमां मने सुख नथी, ने ते
रागादिभाव मारुं स्वरूप नथी एटले तेनाथी छूटी शकाय छे. – ते छूटवा माटेनो आ
प्रश्न छे.
अंतरमां आवो प्रश्न पण विरलाने ज ऊठे छे. आत्मानी आवी वात प्रेमथी
सांभळनारा पण थोडा ज होय छे, ने ते समजीने अनुभव करनारा तो बहु ज
विरला