Atmadharma magazine - Ank 333
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: ३० : आत्मधर्म : अषाढ : र४९७
होय छे. आ तो आत्मा जेने वहालो होय तेनी वात छे. जेने संसार ने पैसा वगेरे
वहाला लागता होय, जेने राग अने पुण्य वहाला लागता होय तेने आत्मानी वात
क्यांथी गमशे? आत्मा तो ए बधाथी रहित, एक ज्ञाननंदस्वरूप छे. आवुं
आत्मस्वरूप समजवानी अंदरमां साची जिज्ञासा पण बहु थोडा जीवोने जागे छे.
अने साक्षात् अनुभव करनारा तो अति विरल छे.
स्वसंवेदन ज्ञानवडे पोताना आत्माने परमेश्वरपणे अनुभवमां लीधो त्यारे
रागादि परभावोथी अत्यंत भिन्नता थई. आत्मानी अनुभूति विकल्पोथी पार छे;
कर्ता–कर्म वगेरेना भेदो तेमां नथी; ज्ञानमां ईन्द्रियोनुं अवलंबन नथी; आत्मा स्वयं
प्रत्यक्ष, विज्ञानघन छे; विकल्पोथी पार अनुभूतिमात्र छे. – आम पोताना स्वरूपनो
निर्णय करीने ज्यां अंतरमां वळे छे त्यां चैतन्यसमुद्र पोते पोताना शांतरसमां मग्न
थाय छे, विकल्पनां वमळ शमी जाय छे ने आस्रवो छूटी जाय छे. आ रीते ज्ञाननो
अनुभव ते ज दुःखथी छूटवानो रस्तो छे.
जीवने अरिहंत भगवान अने सिद्धभगवान जेवुं मोटुं थवुं छे; तो पोताने
तेमना जेवो मोटो (पूर्णस्वभावथी भरेलो) मान्ये मोटो थवाय, के पोताने राग
जेटलो तुच्छ नानो मान्य मोटो थवाय? सिद्धभगवान जेवुं ज शुद्ध चिदानंद मारुं
स्वरूप छे– एम अंतर्मुख निर्णय करीने, ते स्वरूपना अनुभव वडे आत्मा पोते
केवळज्ञानादि प्रगट करीने सिद्धभगवान जेवो महान थाय छे. पण, हुं तो रागनो
कर्ता, हुं तो शरीरनो कर्ता–एम अनुभवनार जीव कदी महान थाय नहीं. भेदज्ञान
वडे ज महानुपणुं थाय छे.
भाई, बीजाना आशराथी तुं सुखी थवा मागे, ते तो तारी दीनता छे.
महानता तो एमां छे के –हुं पोते सर्वज्ञता ने पूर्ण आनंदथी भरपूर भगवान छुं,
मारा ज्ञान के सुख माटे कोई बीजानुं आलंबन नथी –एम स्वसंवेदनथी पोताना
आत्मानी श्रद्धा करवी. जे सिद्धने तुं नमस्कार करे छे तेमना जेवा थवानुं सामर्थ्य
तारामां पण छे. ज आत्मा ज पोते परमात्मा थाय छे. ‘अप्पा सो परमप्पा’ (सर्व
जीव छे सिद्धसम.)
अरे जीव! आवा स्वरूपने साधवाना टाणे तुं निश्चित थईने मोहनी ऊंघमां
कां सूतो? तुं जाग रे जाग! तारा चैतन्यना निधान लूंटाई जाय छे, तेने संभाळ!
आत्मभान विना बाह्यक्रिया अने रागना मोहमां तुं संसारमां रखडी रह्यो छे, तेनाथी
छूटवानो हवे आ अवसर तने मळ्‌यो छे. तो सत्समागमे आत्माना स्वभावनो
निर्णय कर. एवो द्रढ निर्णय कर के निर्विकल्प थईने स्वसंवेदन प्रत्यक्ष अनुभव थाय.