गुणभेदना लक्षरूप व्यवहार छोडाव्यो छे. ए रीते व्यवहारथी पार एकरूप ज्ञायक
भावनो निर्विकल्प अनुभव थतां शुद्ध आत्मा जणाय छे. आ रीते भेदरहित
आत्मानो अनुभव करीने तेने शुद्धआत्मा कह्यो छे. विकल्पनो अने भेदनो अनुभव
ते अशुद्धता छे; शुद्धआत्माना अनुभवमां तेनो अभाव छे.
परमात्मामां नथी. आवा आत्माने अनुभवनार धर्मी कहे छे के अहा, अमारुं आवुं
परमात्मतत्त्व! तेमां विभाव छे ज क््यां, – के तेने टाळवानी चिंता करीए? अमे तो
विभावथी पार एवा अमारा आ परम तत्त्वने ज अनुभवीए छीए. आवी
अनुभूति ते ज मुक्तिने स्पर्शे छे. आ सिवाय बीजी कोई रीते मुक्ति नथी – नथी.
परमतत्त्वमां प्रवेश नथी; तेथी आत्माने ज्ञान–दर्शन–चारित्रना भेदथी कहेवो ते पण
व्यवहार छे. एवा व्यवहारना आश्रये विकल्प थाय छे, शुद्धतत्त्व अनुभवमां नथी
आवतुं. अभेदना आश्रये शुद्धतत्त्वनो निर्विकल्प अनुभव थाय छे.
अनुभव करवानो छे, एटले नीकटवर्ती छे
नीकटवर्ती छे.