Atmadharma magazine - Ank 333
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : र४९७ आत्मधर्म : ३१ :
जयपुर – प्रवचनो आप वांची रह्या छो....... (पृष्ठ १प थी चालु)
ज्ञायकभावनो अनुभव कराववा समयसारनी छठ्ठी गाथामां पयार्यभेदोनो
निषेध कर्यो, एटले पर्यायभेदना लक्षरूप व्यवहार छोडाव्यो; ने सातमी गाथामां
गुणभेदना लक्षरूप व्यवहार छोडाव्यो छे. ए रीते व्यवहारथी पार एकरूप ज्ञायक
भावनो निर्विकल्प अनुभव थतां शुद्ध आत्मा जणाय छे. आ रीते भेदरहित
आत्मानो अनुभव करीने तेने शुद्धआत्मा कह्यो छे. विकल्पनो अने भेदनो अनुभव
ते अशुद्धता छे; शुद्धआत्माना अनुभवमां तेनो अभाव छे.
आवा आत्मानो अनुभव थतां चोथुं गुणस्थान थयुं, एटले पोतामां पोताना
परमात्मानो भेटो थयो. आ परमात्मामां विभाव छे ज नहि, एटले तेनी चिंता
परमात्मामां नथी. आवा आत्माने अनुभवनार धर्मी कहे छे के अहा, अमारुं आवुं
परमात्मतत्त्व! तेमां विभाव छे ज क््यां, – के तेने टाळवानी चिंता करीए? अमे तो
विभावथी पार एवा अमारा आ परम तत्त्वने ज अनुभवीए छीए. आवी
अनुभूति ते ज मुक्तिने स्पर्शे छे. आ सिवाय बीजी कोई रीते मुक्ति नथी – नथी.
जे शुद्ध परम तत्त्व छे तेना अनुभवमां तो ज्ञान–दर्शन–चारित्र–आनंद बधुं
समाई जाय छे; पण हुं ज्ञान छुं– हुं दर्शन छुं – हुं चारित्र छुं – एवा विकल्पोनो
परमतत्त्वमां प्रवेश नथी; तेथी आत्माने ज्ञान–दर्शन–चारित्रना भेदथी कहेवो ते पण
व्यवहार छे. एवा व्यवहारना आश्रये विकल्प थाय छे, शुद्धतत्त्व अनुभवमां नथी
आवतुं. अभेदना आश्रये शुद्धतत्त्वनो निर्विकल्प अनुभव थाय छे.
‘नीकटवर्ती शिष्यने’ अभेद समजावतां वच्चे भेद आवी जाय छे.
शिष्य केवो छे? – नीकटवर्ती छे. तेमां बे प्रकार–
एक तो स्वभावनी नजीक आवेलो छे ने हवे नजीकमां ज स्वभावनो
अनुभव करवानो छे, एटले नीकटवर्ती छे
बीजुं, समजवानी धगशपूर्वक ज्ञानी गुरुनी नीकटमां आव्यो छे, माटे
नीकटवर्ती छे.
– आम भावथी अने द्रव्यथी बंने रीते नीकटवर्ती छे.