Atmadharma magazine - Ank 333
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: ३२ : आत्मधर्म : अषाढ : र४९७
स्वभावनी वात सांभळतां भडकीने दूर नथी भागतो, पण स्वभावनी वात
सांभळवा प्रेमथी नजीक आवे छे, ने सांभळीने तेनी रुचि करीने स्वभावमां नजीक
आवे छे. आवो निकटवर्ती शिष्य व्यवहारना भेदकथनमां न अटकतां तेनो परमार्थ
समजीने आत्माना स्वभावनो अनुभव करी ल्ये छे. केवो अनुभव करे छे? – के
अनंत धर्मोने जे पी गयो छे, अने जेमां अनंत धर्मोनो स्वाद परस्पर (किंचिंत्
मळी गयेलो छे – एवो एक अभेद स्वभावपणे धर्मी पोताने अनुभवे छे. ज्ञान–
दर्शन–चारित्रना भेदने ते नथी अनुभवतो आवो अनुभव करवा माटे तत्पर
थयेला नीकटवर्ती शिष्यजनने माटे आ शुद्धात्मानो उपदेश छे. पोताना स्वानुभवथी
ज आवो आत्मा पमाय छे, बीजा कोई प्रकारे पमातो नथी.
धर्मी अने धर्म वच्चे स्वभावभेद नथी; छतां भेदनो विकल्प करे तो एक
धर्मी –आत्मा अनुभवमां आवतो नथी. एटले भेदरूप व्यवहारने ओळंगीने,
अनंतधर्मस्वरूप एक आत्माने सीधो लक्षमां लेतां निर्विकल्पपणे शुद्ध आत्मा
अनुभवमां आवे छे.
पोतानी चैतन्यवस्तुनो अनुभव करतां गुणगुणीभेदनो विकल्प पण नथी
रहेतो, निर्विकल्प आनंदनो अनुभव रहे छे. एकलो आनंद नहि पण अनंत गुणनो
रस अनुभवमां एक साथे वर्ते छे. सम्यग्दर्शन थतां आवी दशा थाय छे.
सम्यग्दर्शन थवा काळे शुद्धोपयोग होय छे; पण, ‘आ शुद्धोपयोग अने हुं
आत्मा’ एवो भेद पण त्यां नथी; अभेद एक वस्तुनो ज अनुभव छे. ‘हुं शुद्ध छुं’
एवो पण विकल्प अनुभूतिमां नथी. ‘हुं ज्ञायक छुं’ – एवा विकल्पथी शुं? ते
विकल्पमां कांई आत्मा नथी. विकल्पथी पार थईने ज्ञान ज्यारे स्वसन्मुख एकाग्र
थयुं त्यारे आत्मा साक्षात् अनुभवमां आव्यो, त्यारे ते ज्ञान ईन्द्रियोथी ने
आकुळताथी पार थईने आत्मामां वळ्‌युं. आत्मा पोताना यथार्थस्वरूपे पोतामां
प्रसिद्ध थयो. आवी सम्यग्दर्शननी रीत छे.
अनादिनुं तो मिथ्यात्व छे, पण ज्ञान ज्यां जाग्युं ने ज्ञानस्वभावरूप
पोतानो निर्णय करीने, रागथी जुदुं पडी स्वसन्मुख थयुं त्यां एकक्षणमां सम्यग्दर्शन
थाय छे. एकक्षणमां मिथ्यात्वनो नाश करीने सम्यग्दर्शन करवानी आत्मामां अचिंत्य
ताकात छे.