Atmadharma magazine - Ank 333
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : र४९७ आत्मधर्म : ३५ :
आपना प्रश्नोना जवाब
बाळको तथा जिज्ञासुओ तरफथी आवेला प्रश्नोमांथी ७प
प्रश्नो तथा तेना जवाब गतांकमां आपेल छे; विशेष प्रश्नो
तथा तेना जवाबो अहीं आपीए छीए. जिज्ञासुओ आ
विभागमां सारो रस लई रह्या छे. (आप पण आपना
प्रश्नो मोकली शको छो.) सं.
(७६) प्रश्न:– ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थवा माटे शुं करवुं? (प्रेमचंद जैन, खैरागढ)
उत्तर:– ‘ज्ञानस्वभाव’ जेने कहेवामां आवे छे ते शुं चीज छे? अने समस्त
रागादि परभावोथी एनी अत्यंत भिन्नता कया प्रकारे छे – ते
बराबर नककी करीने वारंवार तेनुं मनन करवुं. ‘आवो
ज्ञानस्वभाव ज हुं छुं’ – एम परमप्रीतिथी वारंवार वेदननो
प्रयत्न करतां ज्ञानस्वभावनी सन्मुखता थाय छे ने ते ज्ञानमां
परमशांति वेदाय छे.
(७७) प्रश्न:– सम्यग्द्रष्टिने कया गुणथी ओळखी शकाय?
उत्तर:– हुं जे ज्ञानस्वभाव छुं ते ज्ञानस्वभाव ज छुं; कोईपण प्रसंगे कोईपण
रागादि परभावमां हुं भळी जतो नथी – आवुं ‘आत्मत्व’
सम्यग्द्रष्टिने सदाय वर्ते छे. आवुं परभावथी भिन्न आत्मत्व आपणे
लक्षमां लईए तो ज सम्यग्द्रष्टिने ओळखी शकीए. अने आवा
लक्षपूर्वक जोईए तो, ज्ञानीनी वाणीमां – चेष्टामां पण चैतन्यभाव
झळकतो देखाय छे. पोतामां आवुं सूक्ष्मलक्ष थया वगर ज्ञानीनी
साची ओळखाण थती नथी, मात्र बाह्य ओळखाण थाय छे.
(७८) प्रश्न:– संसारनी अरुचि छे, विभावनो डर लागे छे, चैतन्यस्वभावनी
लगनी छे, तोपण ज्ञायकदेव केम प्रगट नथी थता? (मुमुक्षुबेन)
उत्तर:– बेन, प्रश्न बहु सारो छे; तेना उत्तरमां ज्ञायकदेव पोते कहे छे – हुं तो
प्रगट हाजर तमारी पासे ज छुं, तमे केम मारी सामे नथी जोता?