: ३६ : आत्मधर्म : अषाढ : र४९७
हुं अप्रगट नथी, पण तमे तमारी ज्ञानआंखोने खोलीने मारी तरफ
देखो. बहारनी आंखो (ईन्द्रियचक्षु) बंध करो.
संसारनी अरुचि छे – एम जो खरेखर होय तो परिणति
एमां ज केम ऊभी रहे छे? विभावनो डर खरेखर लागतो होय तो
सामेथी दोडीदोडीने तेमां परिणामे केम लाग्या करे छे?
चैतन्यस्वभावनी लगनी खरेखरी होय तो कोनी ताकात छे के
परिणतिने तेमां तन्मय थतां रोकी शके? ‘चैतन्यस्वभाव – ज्ञायकदेव’
हुं पोते छुं – एम जो लक्षगत थाय तो ज संसारनी अरुचि अने
आत्मानी लगनी खरी थाय. चैतन्यनी लगनी तो एवी तीखी होय छे
के परभावनी सामे जोती नथी, परभावो तेनी पासे एवा बळवान
नथी थई शकता के आत्माने बीवडावे; ऊल्टुं आत्माथी डरीने
परभावो दूर भागे छे. – आ परिस्थिति लक्षमां लईने पोतानी
दशानो फरीफरी विचार करवाथी, आत्मामां ऊंडे ऊतरवानुं थशे अने
ज्ञायकदेवने केम देखवा तेनी सूझ पडशे..... ज्ञायकदेव जरूर प्रगट थशे.
(७९) प्रश्न:– भगवान होय ते तीर्थंकर होय? (विमलाबेन, हिंमतनगर)
उत्तर:– केवळज्ञान जेमने प्रगट्युं छे एवा अरिहंतो ने सिद्धो ते भगवान छे;
ते बधा भगवंतोने तीर्थंकरपणुंनथी होतुं, तीर्थंकर–नामकर्मनो उदय
जेमने होय एवा अमुक अरिहंत भगवंतोने ज तीर्थंकरणपणुंहोय छे.
ते तीर्थंकरोने पंचकल्याणक, समवसरणरचना, दिव्यध्वनि वगेरे होय
छे, ने तेमना निमित्ते धर्मतीर्थ प्रवर्ते छे. (पण सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्ररूप धर्मतीर्थ पोतामां प्रगट करीने ते भगवंतो भवथी तर्या–
ते अपेक्षाए बधाय भगवंतोने तीर्थंकर कही शकाय छे. अने
सम्यग्द्रष्टि पण पोताना सम्यक्त्वरूप तीर्थना कर्ता छे.)
(८०) प्रश्न:– श्रेणीकराजा क्षायिक समकिती हता, तो तेओ हाल क््यां छे? ने
क्षायिक समकित एटले शुं ? (प्रवीण एम. जैन भावनगर)
उत्तर:– क्षायिक समकित एटले आत्माना स्वभावनी एवी जोरदार श्रद्धा के
ज्यां मिथ्यात्वादि कर्मनो क्षय थई जाय. क्षायिक सम्यग्दर्शन केवळी के
श्रुतकेवळी प्रभुनी हाजरीमां ज थाय छे; क्षायिक सम्यग्दर्शन थया
पछी वधुमां वधु त्रीजा भवे जीव मोक्ष पामे ज. श्रेणीक राजाने
क्षायिकसम्यग्दर्शन थयुं छे.