: ३८ : आत्मधर्म : अषाढ : र४९७
मुमुक्षु कहे छे के प्रभो! तारा एकत्वना मार्गे हुं एकलो चाल्यो आवुं छुं. तारी
वीर–हाक सुणीने मोक्षपंथे एकलो – एकलो (एकत्वमां परिणमतो –
परिणमतो) चाल्यो आवुं छुं. जगत सामे जोवानुं मारे प्रयोजन नथी. मुक्तिनो
मार्ग ते ‘एकत्वनो मार्ग’ छे; आत्मा सिवाय बीजा बधाथी ते निरपेक्ष छे.
जे पोतानी चेतनामां परिणमे छे ते आत्मा छे. चेतनाथी बहार जे कांई छे
ते आत्मा नथी. आत्मा पोतानी चेतनाथी बहार कदी परिणमे नहि.
अहा, एकत्वभावनामां तत्पर आत्माने कदी बंधन थतुं नथी, दुःख थतुं नथी,
ते पोते पोताना एकत्वना आनंदमां ज डोले छे. हे जीव! संसारकलेशथी तुं
थाक््यो हो तो अंतरमां तारा एकत्वने शोध. “एकत्व एथी नय – सूज्ञ गोते.”
अज्ञानीपणे संसारना दुःख भोगववामां तुं एकलो हतो, मोक्षमार्गने
साधवामां तुं एकलो छो, अने सिद्धदशामां पण सादिअनंतकाळ तुं एकलो ज
तारा निजानंदमां म्हालीश.
तारो चेतनस्वरूप आत्मा खरेखर ‘एक’ छे; तेमां बीजुं कोई नथी. माटे
परभावमां अहंपणुं छोडीने तुं जाग, ने तारा एकत्वरूप शुद्धआत्माने देख.
अरे, एकत्वस्वरूप आत्मानी अनुभूतिमां ‘हुं ज्ञान छुं’ एटलो विकल्प पण
ज्यां नथी पालवतो, त्यां बाह्यलक्षी बीजा रागनी तो शी वात? गुणभेदना
एक सूक्ष्म विकल्पनी पण पक्कड रहे त्यां सुधी एकत्वस्वरूप शुद्धआत्मा
श्रद्धामां – ज्ञानमां के वेदनमां आवतो नथी. आत्माना एकत्वमां जे
परिणम्यो ते सर्वे विकल्पथी जुदो थयो. ज्ञान अने विकल्पनी सर्वथा भिन्नता
तेणे जाणी – अनुभवी.
तत्त्ववेदी धर्मात्मा एम अनुभवे छे के सर्व विभाव वगरनुं एक
शुद्धजीवास्तिकाय ज अमारुं स्वतत्त्व छे, बीजुं कांई अमारुं नथी. – आवा
एकत्वनो अनुभव करनार तत्त्ववेदी जीव अत्यंत अल्पकाळमां ज अति
अपूर्व सिद्धिने पामे छे.