: ८ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९७ :
विपुलाचल पर वीरनाथनो उपदेश
वीरनी ए वाणी कहे छे के वाणी तरफनो
विकल्प छोडीने तारा चैतन्यतत्त्वने ध्याव.
[अषाड वद एकम (शास्त्रीय श्रावण वद एकम) ना प्रवचनमांथी]
अंतिम तीर्थंकर महावीर भगवानने केवळज्ञान थया पछी, राजगृहीनगरीमां
विपुलाचल पर्वत पर गणधरोनी उपस्थितिमां पहेलवहेलो दिव्यध्वनि आजे छूटयो, ते
झीलीने अनेक जीवो भावश्रुतरूपे परिणम्या ने धर्म पाम्या. गणधरदेवे ते वाणी झीलीने
बारअंगरूपे रचना करी. तेनो सार आ नियमसार–समयसारादि परमागमोमां छे.
अहीं नियमसार कलश ९२मां वचनगुप्तिनुं वर्णन करतां कहे छे के अहो भव्य
जीवो! समस्त वचनविलासथी पार एवा शुद्ध सहज चैतन्यथी विलसता आत्मानुं
एकनुं ज ध्यान करवा जेवुं छे. एना ध्यान वडे ज अनंत आनंदसुखनी खाण प्राप्त
थाय छे.
जुओ, आजे शासननुं बेसतुं वर्ष छे, अने दिव्य वाणीनो मंगल दिवस छे; ते
वाणीमां भगवाने शुं कह्युं? वाणी तरफनुं लक्ष छोडवानुं ते वाणीए कह्युं; वाणीना
विकल्पोथी पार सहज चैतन्यतत्त्व अंतरमां छे, तेनी सन्मुख थईने तेने ध्यावो...वाणी
के विकल्प ते कांई ध्येय नथी. ध्येय तो अंतरमां चिदानंद तत्त्व छे.
भाई, आनंदनी खाण तो तारा अंतरमां छे; वाणीमां कांई तारो आनंद नथी.
भगवाननी वाणी पण एम कहे छे के तुं तारी सन्मुख जो...अमारी सन्मुख
(वाणीसन्मुख, के परसन्मुख) न जो. मुक्तिनो उपाय तो अंतरमां चैतन्यचमत्काररूप
स्वतत्त्वनुं ध्यान करवुं ते ज छे. बाकी तीर्थंकर–भगवान सामे जोवुं तेमां पण विकल्प
छे. आनंदरूप जे मोक्ष तेनो मार्ग