Atmadharma magazine - Ank 334
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४९७ : आत्मधर्म : ९ :
तो स्वद्रव्याश्रित पोतामां छे, परना आश्रये मोक्षनो मार्ग नथी.
अरे जीव! तुं जगतनी सामे कां जो! अंतरमां तारो चैतन्यभगवान चमत्कारिक
वस्तु बिराजे छे तेनी सामे जोने! तेने जोतां तने शांति अने आनंद थशे. बाकी परनी
चिंतन छोडीने परतत्त्वना विकल्पोमां तो राग–द्वेषरूप अंधकार छे; चैतन्यप्रकाश तो
पोताना स्वरूपना ध्यानमां छे. एवुं ध्यान थतां वचन तरफना विकल्पो रहेता नथी;
वचन तरफनी बाह्यवृत्ति ज नथी रहेती, एटले तेणे वचननो त्याग कर्यो एम कहेवाय
छे. आवी वचन–गुप्ति ते मुक्तिनुं कारण छे.
बाह्य अने अंतरना वचन–विकल्पोने छोडीने उपयोगने परमात्मस्वरूपमां
जोडवो ते योग–समाधि छे; ते ज परमात्मस्वरूपने प्रकाशनार प्रदीप छे. विकल्पोमां
परमात्मस्वरूप नथी प्रकाशतुं. अरे, भगवाननी वाणी तरफनो विकल्प पण ज्यां
छोडवा जेवो कह्यो त्यां बीजा बहारना विकल्पोनी तो शी वात! जो बहारना आश्रये
धर्म मानीने ते बहारनी सामे ज जोया करे तो अंतरमां पोतानी सामे क्यारे जुए? ने
पोताना स्वरूपमां उपयोग जोडया वगर धर्म के समाधि–गुप्ति क्यांथी थाय? माटे
जिनवाणीमां एवो उपदेश छे के समस्त वचनविकल्पोथी पार थईने अंतरमां पोताना
सहज अतीन्द्रिय चैतन्यतत्त्वने एकने ज ध्यावो,–आ मोक्षनो मार्ग छे; आ विपुलाचल
परथी वीरनाथनो उपदेश छे.
* * * * *
कायविकारने एटले के समस्त संकल्प–विकल्पोने छोडीने जे फरीफरीने
शुद्धात्मानी सम्यक्भावना करे छे, तेनो ज जन्म संसारमां सफळ छे.
कायानी ममता छोडीने, अने तेना तरफनो विकल्प पण छोडीने
चैतन्यस्वरूपने ध्याववामां जे तत्पर छे ते धर्मात्माने
फरीने काया नहीं मळे; कायाथी पार एवा
अशरीरी सिद्धपदने ते पामशे.
*