Atmadharma magazine - Ank 334
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९७ :
राजमाता चेलणा पण बधी परिस्थिति समजी गई, अने धर्ममां स्थिर करवा
तेने कह्युं – अरे मुनिराज! आत्माना धर्मने साधवानो आवो अवसर फरीफरी नथी
मळतो. माटे तमारुं चित्त मोक्षमार्गमां जोडो; आ संसार तो अनंतवार भोगवाई
चुक्यो छे तेमां किंचित सुख नथी...माटे तेनुं ममत्व छोडीने मुनिधर्ममां तमारा चित्तने
स्थिर करो.
वारिषेण मुनिराजे पण ज्ञान–वैराग्यनो घणो ज उपदेश आप्यो......हे मित्र हवे
तारुं चित्त आत्मानी आराधनामां स्थिर कर अने मारी साथे मोक्षमार्गमां आव.
पुष्पडाले कह्युं–प्रभो! तमे मने मुनिधर्मथी पतित थतो बचाव्यो छे, ने साचो
बोध आपीने मने मोक्षमार्गमां स्थिर कर्यो छे. साचा मित्र तमे ज छो. आपे धर्ममां
स्थितिकरण करीने महान उपकार कर्यो छे. हवे मारुं मन आ संसारथी ने आ भोगोथी
खरेखर उदासीन थयुं छे ने आत्माना रत्नत्रय धर्मनी आराधनामां स्थिर थयुं छे.
स्वप्ने पण हवे आ संसारनी ईच्छा नथी, हवे तो अंतरमां लीन थईने आत्माना
चैतन्यवैभवने साधशुं.
आ प्रमाणे प्रायश्चित करीने ते पुष्पडाल फरीने मुनिधर्ममां स्थिर थया.....अने
बंने मुनिवरो वन तरफ चाल्या....
[वारिषेण मुनिराजनी आ कथा आपणने एम
शीखडावे छे के, कोई पण साधर्मी–धर्मात्मा कदाचित
शिथिल थईने धर्ममार्गथी डगतो होय तो तेना प्रत्ये
तिरस्कार न करवो पण प्रेमपूर्वक तेने धर्ममार्गमां
स्थिर करवो. तेने सर्वप्रकारे सहाय करीने, धर्मनो
उल्लास जगाडीने, जैनधर्मनो परम महिमा समजावीने
के वैराग्यभर्या संबोधन वडे, हरकोई प्रकारे धर्ममां
स्थिर करवो. तेम ज पोते पोताना आत्माने पण
धर्ममां वधु ने वधु स्थिर करवो; गमे तेवी
प्रतिकूळतामां पण धर्मथी जरापण डगवुं नहीं.]