: श्रावण : २४९७ : आत्मधर्म : १७ :
जयपुर–प्रवचनो (३)
वैशाख–जेठमासमां पू. गुरुदेव जयपुर पधार्या ने महान
ज्ञानप्रभावना थई; ते दरमियान समयसार तथा प्रवचन–सार उपरनां
आत्मलक्षी प्र्रवचनोमांथी आ त्रीजो हप्तो छे.
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प्रवचनसारना मंगलाचरणमां पंचपरमेष्ठी भगवंतोने नमस्कार करीने,
शुद्धोपयोगरूप साम्यनी प्राप्ति करवानुं कह्युं; केमके शुद्धोपयोग ते ज मोक्षना
अतीन्द्रियसुखनुं साधन छे.
शुद्धोपयोगरूप चारित्र छे, ते ज धर्म छे. शुभरागनो पण तेमां अभाव छे.–
आवा चारित्ररूपे आत्मा पोते परिणमे छे, तेथी आत्मा पोते ज चारित्र छे. धर्मरूपे
परिणमेलो आत्मा ते पोते धर्म छे.
शुभरागने चारित्र नथी कहेता, तेने धर्म पण नथी कहेता; ते तो मोक्षने विघ्न
करनार छे. मुनिने शुभराग हो भले, पण तेमनुं मुनिपणुं के चारित्र कांई ते रागने
लीधे नथी.
चारित्र तो राग वगरनो साम्यभाव एटले के शुद्धोपयोग छे. जेटली राग
वगरनी शुद्धपरिणति थई तेटलुं चारित्र छे, ने तेटलो ज धर्म छे; ते ज मोक्षनुं कारण
छे.
जीवने मोह अने राग–द्वेष वगरनां जे शुद्ध परिणाम छे ते धर्म छे. रागनो एक
कण पण तेमां न समाय.
धर्मात्माने पोताना आत्माने साधवानी एवी धून छे के हुं ज एक छुं, अने
बीजुं कांई मारे माटे छे ज नहि–एम सर्वत्र ते पोताने एकने ज मुख्य देखे छे. स्वनी
अस्तिमां परनी नास्ति करीने, बीजे बधेयथी द्रष्टि–रुचि हठावीने पोताना