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भगवानने पूरुं ज्ञान छे ने राग जराय नथी;
* मारी अवस्थामां ज्ञान अधूरुं छे ने राग छे, पण मारो स्वभाव पूर्ण ज्ञान–
स्वभावी छे, अने आ राग ते मारुं स्वरूप नथी. राग अने ज्ञान बंने भिन्न–
भिन्न छे–आम पोतामां भेदज्ञान थाय छे.
अरिहंत भगवानना आत्माने जाणतां पोताना आत्मामां–
ज्ञानस्वभावनो स्वीकार थाय छे, अने
सर्वे शुभाशुभनो निषेध थाय छे.
रागादि परभावोनुं कर्तृत्व छूटे छे, अने
रागथी रहित चैतन्यभावरूप परिणमन थाय छे.
–आ रीते सर्वज्ञ–अरिहंतदेव जेवा पोताना आत्मस्वरूपनो निर्णय करीने
अंतर्मुख थतां निर्विकल्प स्वानुभूति वडे मोक्षमार्ग ऊघडे छे.
‘ज्ञान ते आत्मा’ एवो भेद ‘आत्मा’ ने बतावे छे.
‘ज्ञान ते आत्मा’ एवो भेद छे तेनुं पण लक्ष छोडीने
अभेद आत्मानी अनुभूतिमां जवानुं छे.
‘राग ते आत्मा’ एम न कह्युं; अथवा–
ज्ञान ते राग–एम न कह्युं;
ज्ञान ते शरीर–एम न कह्युं;
पण बधा परभावोनो निषेध करीने ‘ज्ञान ते आत्मा’ एम कहीने शुद्ध
आत्मानुं लक्ष कराव्युं छे. जे आवुं लक्ष करे ते व्यवहार द्वारा परमार्थने समज्यो
कहेवाय. आ रीते आचार्य भगवाने शुद्धआत्मवस्तुनो अनुभव कराव्यो छे.
अंतरमां निर्विकल्प आत्मवस्तु पोत विद्यमान छे. तेने अनुभवमां लेवी एटले के
पोते पोतानो अनेभव करवो–ते कांई अशक््य नथी. ते अनुभव केम थाय? ए वात
समयसारनी ११ मी गाथामां बतावी छे. आ गाथाना भावमां जैनसिद्धान्तनो प्राण छे;
केमके सम्यग्दर्शनथी ज जैनधर्मनी शरूआत थाय छे अने तेनी रीत आमां बतावे छे.
व्यवहारनयनो विषय अभूतार्थ छे;
शुद्धनयनो विषय भूतार्थ छे.