: श्रावण : २४९७ : आत्मधर्म : २१ :
घणी गंभीर छे; बहारना संयोग अने शुभाशुभ भावो होवा छतां एना ध्येयमां तो
अखंड शुद्धआत्मा ज वर्ते छे. निर्विकल्प–अनुभूतिनो आनंद एणे वेदी लीधो छे. अहो,
आवुं चैतन्यतत्त्व! अंतरमां आवा तत्त्वने देखवुं ते सम्यक्दर्शन छे. तेनी रीत
कुंदकुंदाचार्यदेवे आ सूत्रमां बतावी छे; जैनदर्शनना गंभीरभावो आ गाथामां भर्या छे.
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आ प्रवचनसारनी १३ मी गाथा वंचाय छे.
आत्माना परम सुखने माटे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र कर्तव्य छे. ते माटे
रागादि साथेनी एकता तोडीने ज्ञानानंदस्वरूपमां परिणति जोडवी ते पहेलुं कर्तव्य छे.
ते करतां ज अंतरमांथी परम शांतिनुं झरणुं आवे छे.
सम्यग्दर्शन उपरांत चारित्रदशामां निर्विकल्प शुद्धोपयोग, ते अनंत आनंदरूप
केवळज्ञाननुं कारण छे. अहो, शुद्धोपयोग वडे जेओने केवळज्ञान प्रसिद्ध थयुं छे तेमना
परमसुखनी शी वात? ते सुख आत्मामांथी ज उत्पन्न छे, ईंद्रियोथी पार छे, अनुपम
छे, अनंत छे, अने विच्छेद वगरनुं छे. अहो, आत्माना आवा सुखनी प्रतीत करतां
आत्माना स्वभावनी प्रतीत थाय छे, ने बहारमांथी सुखबुद्धि छूटी जाय छे.
जुओ, आवा सुखनुं साधन शुद्धोपयोग ज छे, बीजुं कोई साधन नथी.
शुद्धोपयोगमां पोताना ज्ञानस्वभावनुं ज आलंबन छे; तेथी पोताना असाधारण
ज्ञान–स्वभावने ज कारणपणे अंगीकार करतां केवळज्ञान अने परमसुख थाय छे.
आत्माना स्वभाव सिवाय बीजा कोईने सुखनुं कारण मानवुं ते तो संसार–
तत्त्व छे. मिथ्यात्व ते संसारतत्त्व ज छे. कोई जीव भले पंचमहाव्रतादि पाळे तोपण
ज्यां मिथ्यात्व छे त्यां संसारतत्त्व ज छे; ने ते जीव दुःखी ज छे.
आत्मानुं अतीन्द्रियसुख ते ज साचुं सुख छे; ने शुभाशुभ उपयोग छोडीने
आवुं सुख पमाय छे. शुभाशुभने जे कर्तव्य माने ते कदी आत्मानुं सुख पामी शके नहि.
शुभाशुभने छोडीने अने शुद्धोपयोगने आत्मसात् करीने केवळीभगवंतो अनंत
आत्मसुखने पाम्या छे. ते शुद्धोपयोगना फळनी प्रशंसा करीने आचार्यदेव भव्य जीवोने
तेमां प्रोत्साहित करे छे....अहो, आवा सुखनी वात सांभळतां पण भव्य जीवने
प्रोत्साहन चडे छे के वाह! आवा सुखना कारणरूप शुद्धोपयोग ज मारे कर्तव्य छे.