Atmadharma magazine - Ank 334
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: २२ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९७ :
शुद्धोपयोग वडे थतुं आवुं अतीन्द्रिय सुख ज मारे सर्वथा प्रार्थनीय छे; ए सिवाय
संसारमां बीजुं कांई, पुण्य के तेना फळरूप स्वर्गादि पण ईच्छवा योग्य नथी, केमके तेमां
कांई आत्मानुं सुख नथी; पुण्यमां लीन थयेला जीवो पण आकुळतानी अग्निमां बळी
रह्या छे, ने दुःखी छे. सुखी तो शुद्धोपयोगी जीवो छे.
शुद्धोपयोगरूप थयेलो आत्मा ते ज धर्म छे; ते ज सुखी छे; ते ज केवळज्ञान
अने मोक्षने साधे छे. तेनी प्राप्ति माटे चेतनाथी भिन्न एवा अशुभ अने शुभ बधाय
कषायभावो अपास्त करवा जेवा छे, छोडवा जेवा छे.
“हुं तो जगतनो साक्षी, स्वयं सुखनो पिंडलो छुं. तेमां आकुळता केवी? मारा
सुखना अनुभव माटे हुं कोई बीजाने ग्रहण करुं के कोईने छोडुं–एवुं मारा स्वरूपमां छे
ज नहि. बहारना पदार्थो सदा माराथी छूटेला जुदा ज छे, तेनुं ग्रहण के त्याग मारामां
नथी. ज्ञान अने सुखस्वरूप मारो आत्मा छे, तेमां उपयोगनी एकाग्रता थई त्यां
शुभाशुभ पण छूटी गया ने परम वीतरागसुखनो अनुभव रह्यो. अहो, आवी
शुद्धोपयोगदशा ज परम प्रशंसनीय छे.
मुनिधर्म तो शुद्धोपयोगरूप छे; रागरूप कांई मुनिधर्म नथी. पं. श्री टोडरमल्लजी
मुनिनुं स्वरूप बतावतां लखे छे के जो विरागी होकर, समस्त परिग्रहका त्याग
करके शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकार करके, अंतरमें शुद्धोपयोग द्वारा अपनेको
आपरूप अनुभव करते हैं
– आवी मुनिदशा छे; आवी मुनिदशा वगर मोक्ष थतो नथी.
अहा, धन्य एनो अवतार! धन्य एनुं जीवन! ते मुनिओ परद्रव्यमां अहंबुद्धि धारण
करता नथी एटले शरीरादि परनी क्रियाने पोतानी मानता नथी, पोताना
ज्ञानादिकस्वभावने ज पोताना माने छे. रागादि परभावोमां ममत्व करता नथी
शुभराग थाय छे तेने पण हेय जाणीने छोडवा मांगे छे. अशुभमां ने शुभमां बंनेमां
आकुळताना अंगारा छे; चैतन्यनी शांति तो शुद्धोपयोगमां ज छे.
अहो, आत्मानुं सुख जे रागथी पार छे तेनो स्वाद जीवे पूर्वे कदी अनादि–
संसारमां चाख्यो न हतो. सम्यग्दर्शन थयुं त्यारे आत्माना अनुभवमां ते अपूर्व
आह्लादरूप सुखनो स्वाद पहेलीवार आव्यो. ने पछी तेमां लीनता वडे शुद्धोपयोगथी
केवळज्ञान थतां तो ते सुख अतिशयपणे अनुभवमां आव्युं, आखो सुखनो दरियो