Atmadharma magazine - Ank 334
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९७ :
स्वसत्तानी निर्विकल्प अनुभूतिनुं वर्णन
[समयसारनाटक मोक्षद्वार २३–२४]

सम्यग्दर्शन माटे आत्मसत्तानो निर्विकल्प अनुभव करवानी अलौकिक रीत
समयसारमां आचार्यदेवे बतावी छे. अहा, चैतन्यसत्ता तो आत्मा पोते छे. ज्ञाननो
सूर्य आत्मसत्तामां छे, ते ज्ञानसूर्य स्वयमेव प्रकाशमान छे; ते ज्ञानप्रकाशमां पोतानी
स्वसत्ता सिवाय बीजुं कोई साधन नथी. कोई शास्त्रमांथी, कोई गुरुकृपामांथी कोई
उपदेशमांथी के बीजे क््यांयथी पण ज्ञान आवशे. एम जे माने छे ते स्वसत्ताना
चैतन्यसूर्यने देखतो नथी. बापु! तारी स्वसत्ताने तो जो. ज्ञाननो प्रकाश ने अमृत जेवुं
अतीन्द्रियसुख तारी सत्तामां भर्युं छे, क्यांय बहारथी लाववानुं नथी.
अशुभ के शुभ बधाय कषायोथी पार अंदर आनंदनो सागर उछळी रह्यो छे, ते ज
तारी स्वसत्ता छे, आवी पोतानी स्वसत्तानो विश्वास करतां सम्यग्दर्शन थाय छे; ते
सम्यग्दर्शन थतां सम्यग्ज्ञान सहित साचा आनंदनो नमूनो आत्मामां आवी जाय छे. पण
स्वसत्तानी प्रतीत कर्या वगर, परसत्तामांथी कंई पण लेवा मागे ते तो बिचारा
पराधीनपणे अशुभ के शुभ कल्पनाओ वडे दुःखी छे. अरे, विकल्पोथी पराङमुख थया विना
अने स्वसत्तानी सन्मुख थया वगर सम्यग्दर्शन क्यांथी थाय? त्रण लोकना नाथ कहे छे के
तारी स्वसत्तानी सन्मुख तुं थया वगर तने सम्यग्दर्शन कराववा अमे कोई समर्थ नथी.
संभाळ रे सांभळ प्रभु! तारा निधान तारी पासे ज छे. तारी चैतन्य–स्वाधीन सत्तामां
देव–गुरु–शास्त्र पासे कांई पण कराववा मांगीश तो तारी चैतन्यसत्ताने तुं भूलीश; ने
परसत्तानो तुं चोर बनीश. केमके परनी जे सत्ता तारामां नथी तेने तें ग्रहण करी.....पारकी
वस्तु ग्रहे तो चोर कहेवाय. ‘सत्ताते निकसी और ग्रहे सोई चोर है।
अने जे परद्रव्यने जरापण ग्रहतो नथी ने स्वसत्तानी समाधिमां ज रहे छे ते
साधुपुरुष छे, ते सज्जन धर्मात्मा छे, ते सम्यग्द्रष्टि छे.
ते सम्यग्द्रष्टि आत्मसत्तानो निर्विकल्प अनुभव करे छे, ते वात २४मा श्लोकमां
रहे छे–
जे परमअद्भुत चैतन्यसत्ता,––तेनी अनुभवदशा निर्विकल्प छे, तेमां कोई
राग–द्वेष नथी, तेमां कोई स्थापन–उत्थापन नथी, तेमां गुरु–शिष्यना विकल्पो नथी,