Atmadharma magazine - Ank 334
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २४९७ : आत्मधर्म : २५ :
तेमां बंध–मोक्षना विकल्पो नथी, तेमां बीजो कोई स्वामी नथी ने बीजा कोईनी सेवा नथी;
तेमां हार–जीत नथी, तेमां कोईनुं शरण नथी. आवी शुद्धसत्ताने धर्मी अनुभवे छे.
अहा, आवी स्वसत्ता! तेने धर्मी ज देखे छे. स्वसत्ताने ज जे देखे नहि तेने धर्म
केवो? आत्मानी सत्तानी अनुभूतिमां पुण्य के पापनो कलेश नथी. द्रव्य–गुण जेवी
पर्याय पण निर्विकल्प अभेद थई तेमां कलेश केवो?
पोताना सहज चैतन्यतत्त्व सिवाय बीजा कोईनुं वेदवुं जेमां नथी, निर्विकल्प
अनुभूतिमां परलक्ष ज नथी, एकला स्वद्रव्यने ज ते अवलंबनारी छे. ते पोताना
स्वरूपने ज अवलंबे छे.
आत्मानी आ शुद्धअनुभूति एवी उपशांतरसमां ठरी गयेली छे के जेमां पाप–
पुण्यनो कलेश नथी. अहा, हुं ज्यां मारा स्वरूपसन्मुख परिणम्यो त्यां बधाय
परभावोनो कलेश छूटी गयो. कोई परभावनी क्रिया ज तेमां न रही; राग–द्वेष
स्वतत्त्वना अवलंबनमां नथी. अनंत स्वभावथी भरेलो एकलो चैतन्यपिंड ज हुं छुं, ते
ज मारी अनुभूति छे. बंध टाळीने मोक्ष करुं एवो विकल्प पण तेमां नथी. आ हुं मारो
अनुभव करुं छुं–एवोय भेद अनुभवमां नथी; तेमां तो एकला स्वरसनुं वेदन छे. तेमां
पोते ज पोताने शरण छे; कोई बीजा नुं शरण नथी. पोता सिवाय बीजा भगवान
उपर लक्ष ज क्यां छे? परम वीतरागताना स्वादथी भरेली आ अनुभूति तो
समाधिनी भूमि छे–आवी समाधिनी भुमिमां शुद्धचैतन्यसत्तापणे पोते बिराजे छे.
हे जीवो! आत्माना हित माटे आवी अनुभूतिनो अंतरमां उद्यम करो. आवी अनुभूति
ज मोक्षनो आनंद देनारी छे. आवी अनुभूति वगर मोक्षसुखनी आशा जूठी छे, अनुभूति वडे
आत्माने परभावथी जुदो पाडीने जे शुद्धात्मानुं ज्ञान कर्युं ते निःशंकज्ञान धारावाही वर्ते छे. ते
ज्ञानधारामां रागनुं कर्तापणुं जराय नथी. आवो अंर्त–आत्मानो मार्ग छे.
* * * * *
वहाला वांचक साधर्मी बंधुओ,
“आत्मधर्म तमे अत्यंत भक्तिथी वांचजो; तेना मननथी तमारा
आत्मामां अध्यात्मरसनुं घोलन थशे, आत्मार्थभावनी पुष्टि थशे. घेर
बेठा आवुं उत्तम वीतरागी साहित्य मळवुं ते पण महान भाग्य छे.”