: श्रावण : २४९७ : आत्मधर्म : २७ :
करे छे, अने ते पोते ज सुखरूप छे. बहारमां कोईपण विषयो न होय, अथवा ते
विषयो विद्यमान होवा छतां तेमां कोई तरफ उपयोग न होय, छतां ‘हुं सुखी छुं’ एम
जीव पोते एकलो पोतामां अनुभव करी शके छे. माटे विषयोनी अपेक्षा वगर जीव
पोते स्वभावथी ज सुखलक्षणरूप छे. भाई, आवा तारा स्वरूपनो विचार तो कर! तो
तने तामारां ज तारुं सुख देखाशे.
वळी जीवमां ‘वेदकता’ छे. वेदकता एटले शुं? ते कहे छे : आ मोळुं छे, आ मीठुं
छे, आ खाटुं छे, आ खारुं छे, हुं आ स्थितिमां छुं, टाढे ठरुं छुं, दुःख अनुभवुं छुं,–एवुं
जे रस–स्पर्श वगेरे विषयोनुं स्पष्ट ज्ञान–वेदनज्ञान–अनुभवज्ञान–अनुभवपणुं ते जो
कोई मां होय, तो ते आ ‘जीवपद’ ने विषे छे; अथवा पदार्थनुं आवुं ज्ञान ते जेनुं
लक्षण छे ते ‘जीव’ छे.
जडपदार्थोमां कांई वेदकतां नथी; जडथी भिन्न एवो जीव ज वेदकस्वभाव–वाळो
छे. स्वभावना आनंदने वेदे–अनुभवे तेमां तो बाह्यविषयोनी अपेक्षा नथी; अने
बहारमां हर्ष शोकादि भावने वेदतो अज्ञानी जीव जडपदार्थना रस–गंध वगेरेने
वेदवानुं माने छे. पण अहीं तो एटलुं बताववुं छे के आवुं वेदकपणुं जीवमां ज छे,
बीजामां नथी. आ रीते परथी भिन्न एवा जीवतत्त्वने ओळखाव्युं छे.
‘चैतन्यता’ वडे जीवमां स्पष्ट प्रकाशपणुं छे. अनंत–अनंत कोटी तेजस्वी दीपक–
मणि–चंद्र–सूर्यादिनी कांति जेना प्रकाश विना प्रगटवा समर्थ नथी, अर्थात् ते सर्वे पोते
पोताने जाणवा अथवा जणावा योग्य नथी, जे पदार्थना प्रकाशने विषे चैतन्यपणाथी ते
पदार्थो जाण्या जाय छे,–प्रकाश पामे छे–स्पष्ट भासे छे, ते पदार्थ जे कोई छे ते जीव छे.
एटले स्पष्ट–प्रकाशमान अचळ एवुं निराबाध प्रकाशमान चैतन्य ते ‘जीव’ छे, अने
ते ‘जीव’ प्रत्ये उपयोग वाळतां प्रगट–स्पष्टपणे देखाय छे.
जुओ, आ चैतन्यस्वरूप आत्मानुं स्वसंवेदन–प्रत्यक्षपणुं बताव्युं. आत्मामां ज
एवी ताकात छे के पोते पोताने तेमज बीजाने पण जाणे. आत्मा कई रीते जणाय? के
आत्मामां उपयोग वाळे तो ज आत्मा जणाय; बीजा कोई उपाये जणाय नहीं. आत्मा
तरफ जे उपयोग वळ्यो ते उपयोग रागथी जुदो छे, एटले राग ते कांई आत्मज्ञाननुं के
धर्मनुं साधन नथी.
जगतमां आत्मा सिवायना जे कोई पदार्थो छे ते कोईनामां स्व–परने जाणवानुं
सामर्थ्य नथी. सूर्य–चंद्र वगेरेनो जडप्रकाश होवा छतां पदार्थोने जाणे छे तो ज्ञान;