Atmadharma magazine - Ank 334
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: २८ : आत्मधर्म : श्रावण : २४९७ :
ते जडप्रकाश (अजवाळुं) कांई पदार्थोने जाणतुं नथी; ते प्रकाशनो पण प्रकाशक तो आ
चैतन्यप्रकाशी आत्मा ज छे.
अहा, चैतन्यप्रकाशी आत्मा कोई अद्भुत वस्तु छे. अंतरमां विचार करीने
स्वानुभव वडे तेनो पत्तो लेवा जेवुं छे.–
‘शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन स्वयं ज्योति सुखधाम;
बीजुं कहीए केटलुं? कर विचार तो पाम.’
जुओ, आमां पण श्री मद्राजचंद्रजीए जीवनुं सरस वर्णन कर्युं छे. शुद्ध कहीने
शुद्धद्रव्य बताव्युं; बुद्ध कहीने ज्ञानस्वभाव बताव्यो; चैतन्यघन कहीने असंख्य–प्रदेशथी
अखंडपणुं बताव्युं; स्वयंज्योति कहीने स्वसंवेदन–प्रत्यक्षपणुं बताव्युं. अने सुखधाम
कहीने अतीन्द्रिय आनंदस्वभावनुं धाम पोते ज छे–एम बताव्युं, आवो आत्मा
स्वानुभूतिगम्य छे. वचनथी केटलुं कहेवाय? पोते अंतरविचार करीने स्वानुभव करे
त्यारे तेनी खबर पडे. बाकी वचनना विकल्पथी पार पडे तेम नथी.
श्रीमद् पोते कहे छे के तुं तारा सामे जो. अमारी सामे जोया कर्ये आत्मा नहीं
समजाय. जुओने १६ वर्ष जेटली नानी वये पण केवुं सरस लखे छे!
हे जीवो!
स्वद्रव्यना रक्षक त्वराथी थाओ.
स्वद्रव्यना व्यापक त्वराथी थाओ.
स्वद्रव्यना धारक त्वराथी थाओ.
स्वद्रव्यना रमक त्वराथी थाओ.
स्वद्रव्यना ग्राहक त्वराथी थाओ.
स्वद्रव्यनी रक्षकता उपरलक्ष राखो.
हुं परनी रक्षा करुं ने पर मारी रक्षा करे–एवी बुद्धि शीघ्र छोडो, ने परथी भिन्न
पोतानुं सहजस्वरूप जे रम्य छे, ज्ञायक छे, सुखधाम छे तेने अनुभवमां ल्यो.