Atmadharma magazine - Ank 334
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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जेम चोमासामां जीवो वरसादनी अत्यंत आतूरताथी वाट जुए छे, जराक वार
लागे त्यां आकुळ–व्याकुळ थई जाय छे, तेम अंदरमां आत्मामां आनंदनी
धारानो वरसाद केम वरसे–ते माटे आतुरता करे, ने तेनो प्रयत्न करे तो अंदर
अपूर्व अमृतनी धारा वरसे ने सम्यक्त्वादि गुणोनां अपूर्व पाक पाके.–पछी तेने
मोक्षमां जतां कोई रोकनार नथी. अहा, जेनी वात सांभळतां पण आनंद थाय
एवो आ आत्मा छे. बापु! बहारनी होशियारीमां कांई सार नथी, अंदर
आत्मानी शांतिना अनुभवमां होशियारी प्रगट करने!
* अहा, आवुं पोतानुं परमतत्त्व–तेनी तो गतागम करतो नथी, ने बहारनी
गडमथलमां लाग्यो रहे छे, पण बापु! आ अमूल्य अवसर चाल्यो जाय छे.
अरे जीव! तुं अंतरमां जा...तेमां ढील न कर. तेमां वार न लगाड. अरे,
जेनी रुचि थई, जेनी लगनी लागी तेमां वार शी? आजे ज, वर्तमानमां
अत्यारे ज तारुं आत्मलक्ष करी ले. प्रवचनसारमां घणुं घणुं वर्णन करीने छेल्ले
आचार्यदेव कहे छे के हे जीवो! आवा परमानंदमय स्वतत्त्वने आजे ज तमे
अनुभवो. अनेकांतमय जिनशासनना वशे तमे चैतन्यस्वरूप आत्माने
आनंदसहित हमणां ज अनुभवो...अत्यारे ज तमारा परिणामने अंर्तमुख
करीने आत्माना परम–स्वभावने श्रद्धा–ज्ञानमां ल्यो.
* जुओ, ऋषभदेव वगेरे छ जीवोने भोगभूमिमां सम्यकत्वनो उपदेश आपतां
मुनिवरोए पण एम ज कह्युं हतुं के हे जीव! तुं हमणां ज सम्यकत्वने ग्रहण कर.
अत्यारे ज तेनी लब्धिनो स्वकाळ छे. (
तत् गृहाण अद्य सम्यक्त्वं तत् लाभे
काल एष ते।) अने ते ऋषभादि छ जीवो पण तरत ज तत्क्षणे अंतरमां
ऊतरीने सम्यग्दर्शन पामी गया. (आ प्रसंगनुं भावभीनुं चित्र सम्यग्दर्शन भाग
४ ना पूंठा पर आप जोई शकशो; सोनगढ–जिनमंदिरमां पण ते चित्र छे.)
* * * * *
आत्मानो स्वानुभव थतां समकिती जीव केवळज्ञानी जेटलो ज निःशंक
जाणे छे के आत्मानो आराधक थयो छुं ने प्रभुना मार्गमां भळ्‌यो छुं. स्वानुभव
थयो ने भवकटी थई गई; हवे अमारे आ भवभ्रमणमां रखडवानुं होय नहि.
आ रीते अंदरथी आत्मा पोते ज स्वानुभवना पडकार करतो जवाब आपे छे.