जोईतुं होय तेणे निरंतर आ शुद्धपदनो ज अनुभव करवो. शुं करवुं ने शेमां ठरवुं? –तो
कहे छे के पोताना शुद्ध चैतन्यपदमां द्रष्टि करवी ने तेमां ठरवुं. शरीर के घर ते तारुं पद
नथी, ते तारुं रहेठाण नथी; संयोगो ते तारुं रहेठाण नथी, राग ते तारुं रहेठाण नथी,
तारुं रहेठाण असंख्यप्रदेशी चैतन्यरसथी भरपूर छे, ते ज तारुं निजपद छे.–एनो
अनुभव लेवो ते ज मोक्षनुं एटले चिरसुखनुं कारण छे. चिरसुख एटले लांबुं सुख,
अनंतकाळनुं सुख, शाश्वत सुख, मोक्षसुख.
आनंद न होय तेने निजपद केम कहेवाय? निजपद तो तेने कहेवाय के जेमां आनंद
होय. जेनो स्वाद लेतां, जेमां रहेतां, जेमां ठरतां आत्माने सुखनो अनुभव थाय ते
निजपद छे. जेना वेदनमां आकुळता थाय ते निजपद नथी, ते तो पर पद छे, आत्माने
माटे अपद छे. तेने अपद जाणीने तेनाथी पाछा वळो, ने आ शुद्ध आनंदमय चैतन्यपद
तरफ आवो. सन्तो साद पाडीने बोलावे छे के आ तरफ आवो–आ तरफ आवो.
चारित्रमांय चैतन्यनो स्वाद छे. रागनो स्वाद रत्नत्रयथी बहार छे; निजपदमां रागनो
स्वाद नथी. राग ए तो दुःख छे, विपदा छे, चैतन्यपदमां विपदा नथी. जेमां आपदा ते
अपद, जेमां आपदानो अभाव ने सुखनो सद्भाव ते स्वपद; आनंदस्वरूप आत्मानी
संपदाथी जे विपरीत छे ते विपदा छे. राग ते चैतन्यनी संपदा नथी पण विपदा छे;
आत्मानुं ते अपद छे. जेम राजानुं स्थान मेला उकरडामां न शोभे, राजा तो सोनाना
सिंहासने शोभे; तेम आ जीव–राजानुं स्थान राग–द्धेष क्रोधादि मलिनभावोमां नथी
शोभतुं, तेनुं स्थान तो पोताना शुद्ध चैतन्यसिंहासने शोभे छे. रागमां चैतन्यराजा
नथी शोभता; ए तो अपद छे, अस्थिर छे, मलिन छे, विरुद्ध छे; चैतन्यपद शाश्वत छे,
शुद्ध छे, पवित्र छे, पोताना स्वभावरूप छे. आवा शुद्ध स्वपदने हे जीवो! तमे
जाणो...तेने स्वानुभव–प्रत्यक्ष करो. आवी निजपदनी साधना ते मोक्षनो उपाय छे.