: ८ : आत्मधर्म : भाद्रपद : २४९७
५१ त्रणेकाळे हुं मारा आवा परम भावरूप ज छुं–आम जे पर्याये अंतर्मुख थईने
स्वीकार्युं ते पर्याय सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र–सुखरूप थयेली छे. पर्याय अंतर्मुख
थईने, अने रागादिथी जुदी पडीने, ‘परम भावस्वरूप कारण–परमात्मा हुं छुं’
एम पोताने अनुभवे छे–जाणे छे–देखे छे–भावे छे. आवा कारणपरमात्मामां
उदयादि परभावोनुं कदी ग्रहण नथी.
५२ अहो जीवो! आवो परमस्वभाव लक्षमां लईने तेनी ज भावना करवा जेवुं छे.
आवा स्वभावनी वात सांभळवानुं पण महा भाग्ये मळे छे. जेनी पर्याय
अंतर्मुख परिणमी छे ते धर्मात्मा एम जाणे छे के हुं त्रिकाळ सहज स्वभावथी
परिपूर्ण परम आत्मा छुं. मारा स्वभावनो कदी नाश नथी. अरे, आवो हुं
त्रिकाळ छुं–त्यां कोण मने मारे? ने कोण मारी रक्षा करे?
५३ मारो स्वभाव ज केवळज्ञानादि स्वभावथी सदा भरपूर छे, तेनो स्वीकार करतां
हवे पर्यायमां अभूतपूर्व केवळज्ञानादि प्रगटये ज छूटको. पर्यायमां केवळज्ञानादि
भावो नवा प्रगटया, तेथी ते अभूतपूर्व छे, पण सहज स्वभावथी तो हुं सदाय
केवळज्ञानादिस्वरूप ज छुं, एनाथी कदी जुदो पड्यो ज नथी. –आम धर्मी पोताने
चिंतवे छे, जाणे छे, श्रद्धे छे, अनुभवे छे. आनुं नाम भावना छे. ने आ भावना
मोक्षनो उपाय छे. माटे आवी परमतत्त्वनी भावना निरंतर करो. राग वडे एवी
भावना नथी भवाति, रागादि परभावोने परिहरीने चैतन्यनी सन्मुखताथी
एवी भावना भवाय छे.
५४ अरे जीव! अंदरना स्वरूपमां ऊंडे जा... ऊंडे जा... ऊंडे ऊंडे तेरा आत्मा रहा छे.
रत्न माटे दरियामां ऊंडे डूबकी मारवी पडे छे तेम चैतन्यरसना समुद्रमांथी
सम्यग्दर्शनादि परम रत्नोनी प्राप्ति करवा तुं अंदर ऊंडे ऊतर; समस्त परभावोने
अत्यंत परिहरीने चैतन्यचमत्कारथी भरेला चैतन्यसमुद्रमां ऊंडो ऊतरी जा.
५५ चैतन्यतत्त्वमां ऊंडी ऊतरेली एटले के तेमां सन्मुख थईने परिणमेली परिणति
वाळो जीव–‘आ हुं’ एम पोताने परमात्मस्वरूपे देखे छे–अनुभवे छे. अहो,
अंतरमां ऊंडे ऊतरीने आवा स्वतत्त्वरूपे पोतानो अनुभवो. एकावतारी ईन्द्रो
पण जेनी वात परम आदरथी सांभळे छे एवा आ परमतत्त्वने लक्षमां लईने
तेनी भावना करो...तेनी सन्मुख परिणति करो.