: भाद्रपद : २४९७ आत्मधर्म : ७ :
४३ केवळज्ञान वगेरेना आधाररूप आवा पोताना तत्त्वनुं अवलोकन करीने (श्रद्धा–
ज्ञान करीने) ज्ञानी तेनी ज भावना करे छे. आवा तत्त्वनी द्रष्टि करीने धर्मी कहे
छे के आवा सहज स्वरूपे हुं सदाय जयवंत छुं.
४४ आ जयवंत तत्त्वनी सन्मुखताथी जे सम्यक्–श्रद्धा–ज्ञान–सुखनी अनुभूति प्रगटी
ते पण जयवंत छे.
४५ परिणति परभावथी छूटीने अंतर्मुख थई त्यारे भान थयुं के अहो, आवा
स्वभावे मारो आत्मा जयवंत छे.
४६ आ कोई विकल्पनी वात नथी पण धर्मीने पोताने अंदर तेवा वेदनरूप परिणति
थई गई छे.
४७ धर्मीने रागथी निरपेक्ष, इंद्रियोथी निरपेक्ष एवा सम्यक् मतिश्रुतज्ञान स्वसंवेदन–
प्रत्यक्षरूप छे, अंतर्मुख थईने पोताना सहज ज्ञानादि स्वरूप आत्माने पोते जाणे
छे.
४८ आत्माना सहज स्वभावरूप निजभावने ज्ञानी कदी छोडतो नथी; ने रागादि
परभावने कदी पोताना करतो नथी; सहज ज्ञान–दर्शन–आनंदस्वरूपे ज ते
पोताने चिंतवे छे.–
निजभावने छोडे नहीं, परभाव कंई पण नव ग्रहे;
जाणे–जुए जे सर्व ते हुं, – एम ज्ञानी चिंतवे. (९७)
४९ आत्मानो सहज स्वभाव ते परम भाव छे; ते परम भावनी सन्मुख थईने
ज्ञानी पोताना आत्माने केवो भावे छे तेनुं आ वर्णन छे. आवा स्वभावनी
भावना, एटले के तेमां तन्मयभावरूप परिणति, ते परम आनंदरूप छे, ते
मोक्षनुं कारण छे.
५० निजभाव एटले आत्मानो परम भाव; आत्माना सहज ज्ञान–दर्शन–सुख–
वीर्यस्वभावरूप निजभाव, तेने आत्मा कदी छोडतो नथी. स्वभाव अने
स्वभाववान जुदा नथी के तेने आत्मा छोडे! चैतन्यना आवा एकत्व–स्वभावमां
संसार–परभावनो प्रवेश कदी नथी.