Atmadharma magazine - Ank 335
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म : भाद्रपद : २४९७
३३ राग होवा छतां तेने हुं भावतो नथी, तेने मारापणे देखतो नथी, ते तरफ मारो
झुकाव नथी मारो झुकाव मारा चैतन्य परमात्मतत्त्वमां छे, तेमां झुकेली
परिणतिमां रागादि नथी; एटले ते परिणति स्वयं प्रत्याख्यानस्वरूप छे.
३४ आवा आत्माने जाणीने तेनी निरंतर भावना करवी–एम वीतरागी संतोनी
शिखामण छे.
३५ अहा, चैतन्यतत्त्व तो कोई परम गंभीर छे तेमां परिणति अंतर्मुख थाय त्यारे ज
तेनुं खरुं चिंतन अने भावना थाय छे.
३६ जीव द्रव्यस्वभावे त्रिकाळ ज्ञानस्वरूप तो छे ज,–पण हुं त्रिकाळ ज्ञानस्वरूप छुं–
एम जाणे छे तो ते तरफ एकाग्र थयेली पर्याय; त्रिकाळ सन्मुख एकाग्र थयेली
पर्याय ज जाणे छे के ‘हुं आवो छुं. ’
३७ आवी स्वसन्मुख परिणतिरूपे परिणमे त्यारे आत्माए पोताना सहज
स्वभावनो स्वीकार अने अनुभव कर्यो कहेवाय. पोते ते भावरूप परिणम्या
वगर तेनो साचो स्वीकार के अनुभव न थाय.
३८ आम स्वमां अंतर्मुख थईने में मारा परम आत्माने देख्यो–जाण्यो–अनुभव्यो.
पोतामां जाते ज अनुभवेली पोतानी वस्तुमां संदेह शो? स्व वस्तुनी अनुभूति
थतां संदेह टळ्‌यो, भय टळ्‌यो; पोते पोताथी ज तृप्त थयो, निःसंदेह थयो.
३९ सब विकल्प–जंजालको छोडकर चैतन्यका निर्विकल्प अमृतरस पीओ.
४० ज्ञानी सदा एम भावना करे छे के हुं कारण–परमात्मा छुं. ज्ञानीओना
हृदयसरोवरनो हंसलो तो आनंदरूप सहज चैतन्य परमात्मा छे.
४१ परभावोने पोताथी सदा जुदा राखनार, एटले परभावोथी सदाय रहित एवो
चैतन्य–हंस, तेने ज्ञानी पोताना हृदयमां ध्यावे छे.
४२ आ चैतन्य–हंस कारणपरमात्मा, सहज चतुष्टय–स्वरूप त्रिकाळ छे, ते पोते
केवळज्ञानादि अनंत चतुष्टयनो आधार छे; पण तेने आधार–आधेयना भेद
नथी. आधार–आधेय संबंधी विकल्पो रहित अनुभूति वडे जे परमसुख उत्पन्न
थाय छे तेनुं स्थान आ सहज परमात्मतत्त्व छे.