Atmadharma magazine - Ank 335
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 11 of 44

background image
: भाद्रपद : २४९७ आत्मधर्म : ९ :
५६ एक ईन्द्र पोताना बे सागरोपमना आयुकाळमां असंख्याता तीर्थंकर भगवंतोना
पंचकल्याणक ऊजवे छे; असंख्यात तीर्थंकरोना श्रीमुखेथी आवा परमतत्त्वनी
वात बहुमानपूर्वक सांभळे छे. –एवुं आ परमात्मतत्त्व महान भाग्ये जीवोने
सांभळवा मळे छे.
५७ –अने आवा तत्त्वनुं सम्यक्भान तथा अनुभव करे ते तो कृतकृत्य थई जाय छे.
माटे हे जीवो! अंतर्मुख थईने तमे तमारा आवा तत्त्वने अनुभवमां ल्यो–एवो
उपदेश छे.
५८ अंतरमां चैतन्यरसने चाख्या पछी हवे अमारुं चित्त बीजे क्यांय लागतुं नथी...
चित्त चैतन्यमां ज संलग्न छे. निजस्वरूपमां लागेला चित्तने परनी चिंता करवानी
नवराश ज क्यां छे!
आ ५८ मंगलरत्नोना मननवडे मुमुक्षुओ भगवती चेतनाने प्राप्त करो.
[चैतन्यअनुभूतिवंत...ज्ञानचेतनापरिणत...धर्मात्माओने तदाकार नमस्कार.]
(ब्र. ह. जैन)
* * * * *
* ‘मने समता छे’ *
सौ जीवमां समता मने, को साथ वेर मने नहीं;
आशा खरेखर छोडीने प्राप्ति करुं छुं समाधिनी.
* जेणे समस्त इंद्रियोना व्यापारने छोड्यो छे एवा मने भेद–विज्ञानीओ
तेमज अज्ञानीओ प्रत्ये समता छे.
* मित्र के शत्रुरूप परिणतिना अभावने लीधे मने कोई प्राणी साथे वेर नथी.
* सहज वैराग्य परिणतिने लीधे मने कोई पण आशा वर्तती नथी.
* परम समरसी भावसंयुक्त परम समाधिनो हुं आश्रय करुं छुं.