: १२ : आत्मधर्म : भाद्रपद : २४९७
कोलाहलथी दूर अने योगीओने
[मारा आ अद्भुत तत्त्वने अति अपूर्व रीते हुं भावुं छुं]
[भाद्र. सुद. ८ नियमसार श्लोक १५५–१५६–१५७]
परम पुरुष एवो चैतन्यमूर्ति आत्मा केवो छे? मन अने वचनना मार्गथी ते
दूर छे, मन–वचनथी अगोचर छे, पण ज्ञानज्योति वडे धर्मात्माओना चित्तमां ते स्पष्ट
छे, धर्मात्माओ मन–वचनथी पर थईने स्पष्ट स्वसंवेदनथी तेने अनुभवे छे. आवी
अनुभूतिमां विधि–निषेधना कोई विकल्पो नथी; केमके त्यां ग्रहवायोग्य एवा
शुद्धतत्त्वनुं साक्षात् ग्रहण छे, ने निषेधरूप समस्त पर भावोनो अभाव ज छे.
धर्मात्मा पोतानी अनुभूतिवडे आवा सहज चैतन्यतत्त्वने पोतामां अनुभवे छे;
तेमां ईन्द्रियजनित कोई कोलाहल नथी, ते परम शांत छे. ईन्द्रियज्ञान तो परवलणवाळुं
होवाथी कोलाहलवाळुं छे. मारुं सहज तत्त्व कोलाहल वगरनुं छे केमके ईन्द्रियोथी तो पार
छे. नयना विकल्पोथी दूर होवा छतां कांई ते अगोचर नथी, उपयोगने अंतरमां जोडनारा
साक्षात् जणाय छे, अनुभवाय छे. मनथी ने कोलाहलथी दूर होवा छतां धर्मीनी
स्वसन्मुख पर्यायमां ते समीप छे, दूर नथी. आवुं तत्त्व ज जगतमां उत्कृष्ट छे, ते
निजअनुभूतिनी समृद्धिथी शोभित छे. मारा सम्यग्दर्शनादि भावोमां मारो आत्मा अभेद
छे तेथी ते ज समीप छे, ने परभावोनो कोलाहल तेमां नथी, तेनाथी ते दूर छे, जुदो छे.
अज्ञानी जीवोनी अनुभूतिमां रागादि परभावो ज देखाय छे, तेथी तेने
परभावो नजीक लागे छे ने सहज चैतन्यतत्त्व दूर छे. ज्ञानीओने स्वानुभूतिमां पोतानुं
परम तत्त्व नजीक छे, ने परभावो दूर छे. अहो! सम्यग्द्रष्टिने पोतानो आत्मा गम्य छे,
पोतामां ज अनुभवगोचर छे, नजीक छे. अज्ञानी ईन्द्रिय–मनथी ने संकल्प–विकल्पना
कोलाहलथी जुदो पडतो नथी तेथी तेने परमतत्त्व दूर छे. शुभना विकल्पथी दूर
चैतन्यतत्त्व छे, चैतन्यनी ज्योति रागथी जुदी प्रकाशे छे तेमां ज आत्मा छे. चैतन्यना
दीवडानी नजीक ज आत्मानुं घर छे, अर्थात् ते ज आत्मा छे.
लोकोमां कहेवाय छे के ‘मामानुं घर केटले?.....दीवो बळे एटले’. तेम आत्मानुं