: भाद्रपद : २४९७ आत्मधर्म : १३ :
घर केटले? तो कहे छे के ‘दीवो बळे एटले’ अर्थात् चैतन्यनी ज्योति ज्यां झळहळ
झळके छे ते आत्मानुं घर छे. स्वानुभवरूपी चैतन्यदीवा वडे आत्मा प्रत्यक्षगोचर थाय
छे. आवुं निर्दोष सहज चैतन्यतत्त्व अत्यंत जयवंत छे.
आ चैतन्यतत्त्व पोताना सुखरूपी सुधासागरमां सदा लीन छे. अहो, आत्मामां
सुखनो समुद्र सदाय भरपूर छे, जेनी सामे नजर करतां ज पोतामां अपूर्व सम्यकत्वनो
अमृतसागर प्रगटे छे ने मिथ्यात्वनुं झेर ऊतरी जाय छे. परम गुरु द्वारा भव्यजीवोए
आवा शुद्धआत्माने जाण्यो छे, ने शाश्वत सुखने अनुभव्युं छे. अहो! एकला सुखथी ज
भरेला कोई अद्भुत सहज तत्त्वने हुं पण अति अपूर्व रीते सदाय भावुं छुं. मारा
तत्त्वने अनुभवीने तेने ज हुं भावुं छुं.
अहा, जगतमां आवा सहज चैतन्यतत्त्वने भावनारा–अनुभवनारा संत–
धर्मात्माओ तो श्रेष्ठ छे, जगतनी स्पृहा तेमने नथी, ईन्द्र अने चक्रवर्तीनी विभूतिनी
पण जेनी पासे कांई ज गणतरी नथी, एवी साची चैतन्यविभूति तेमणे प्राप्त करी छे.
पैसा वगेरे परिग्रह न होवा छतां ए वीतरागी संतो गरीब नथी, ए तो परमेष्ठी
परमेश्वर भगवान छे. सहज चैतन्यतत्त्वथी ऊंचो वैभव जगतमां बीजो कोई नथी.
एवा तत्त्वनी भावनावाळा संतोने अमे प्रणमीए छीए, अने अमे पण एवा ज
सहज तत्त्वने भावीए छीए, अनुभवीए छीए. आवी अनुभूति ते मार्ग छे. उत्तम
क्षमादि बधा वीतरागी धर्मो आवा अनुभवमां ज समाय छे. एमां कोई कोलाहल नथी,
कोई कलेश नथी, ए ज अभेद मुक्तिमार्ग छे. तेथी–‘निजभावथी भिन्न एवा सकळ
विभावने छोडीने एक निर्मल चैतन्यमात्र तत्त्वने हुं भावुं छुं,–तेना श्रद्धा–ज्ञान–
अनुभवमां एकाग्र थाउं छुं. संसारसागरने तरी जवा माटे आवा अभेद मुक्तिमार्गने
हुं नित्य नमुं छुं...एटले के चैतन्यभावना वडे हुं पण ए ज मार्गे जाउं छुं.
* गुणमां दोष नथी *
राग ते दोष छे, ज्ञान लक्षणथी लक्षित आत्मामां तेनो समावेश
थतो नथी; राग भले शुभ हो–पण तेनो समावेश ज्ञानमां थतो नथी,
ज्ञाननी पर्यायमां पण राग नथी. ज्ञानना परिणमनमां अनंत गुणनी
निर्मळपर्यायो समाय, पण ज्ञानना परिणमनमां राग न समाय.
आवा ज्ञान परिणमनने आत्मा कहीए छीए, रागने आत्मा कहेता
नथी. आवा आत्माने जाणे–माने–अनुभवे ते मोक्षनो मार्ग छे. *