: १४ : आत्मधर्म : भाद्रपद : २४९७
आत्माना नव रस
आत्मा अरसी होवा छतां तेनामां अचिंत्य वीतरागी
नवरस छे, तेनुं आ वर्णन छे. चैतन्यनो आ अनुभवरस चाख्या
पछी आखुं जगत नीरस लागे छे. आत्माना अनुभवनो रस ए
ज एक साचो रस छे. अनंतगुणनो रस तेमां समाई जाय छे.
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लौकिक नवरसनो अनुभव तो जीवोने संसारमां अनादिथी छे, पण आत्मा
अने रागनी भिन्नताने ज्यारे जाणे त्यारे जीवने चैतन्यना स्वादरूप अलौकिक शांतरस
सहित लोकोत्तर नवरस प्रगटे छे. स्वानुभूतिरूप समयसारना रसमां चैतन्यना बधा
रस समाय छे; बधा रस ज्ञानमां गर्भित छे. उपयोग जेमां एकाग्र थाय तेनो रस
लीधो कहेवाय छे. ज्ञानमां गर्भित नव रसनुं अहीं वर्णन करे छे.
(१) शृंगाररस–चैतन्यना सम्यक्त्वादि गुणनो विचार ते आत्मानो शृंगाररस
छे. चैतन्यनी शोभा आवा निजगुण वडे ज छे–एम ज्ञानमां निजगुणनी शोभानो
विचार करवो ते अध्यात्म–शृंगाररस छे. देहना शणगार वडे कांई आत्मानी शोभा
नथी.
(२) वीररस–चैतन्य तरफ झुकाव करीने वीतरागी वीरतावडे कर्मोने झाडी
नांखवा तेमा आत्मानो वीररस छे. शरीरना बळमां कांई आत्मानी वीरता नथी.
आत्मानी वीरता तो पुण्य–पापथी पार एवा चैतन्यस्वरूपने रचे–अनुभवे तेमां ज छे;
ते ज वीररस छे.
(३) करुणारस–आत्मानो अनुभव थतां एवो वीतरागभाव थाय के सर्वे
जीवो प्रत्ये रागरहित समताभाव रहे–ते साचो करुणारस छे. हुं ज्ञायक चिदानंद छुं ने
बधा जीवो पण मारा जेवा चिदानंद छे–एम देखतां सर्वे जीवो प्रत्ये समभाव रहे ते
समतारूप करुणारस छे. आ वीतरागी करूणा छे. भगवंतो पण आवी करूणावाळा छे.
आवो वीतरागी करूणाभाव जीवे कदी प्रगट कर्यो नथी. बहारमां दुःखी जीवोने देखीने
करूणानो शुभराग आवे ते तो लौकिक करूणा छे. सर्वे जीवोने ज्ञानमय देखतां