Atmadharma magazine - Ank 335
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २४९७ आत्मधर्म : १५ :
जे वीतरागी समरस थाय छे ते परमार्थ वीतरागी करूणारस छे.
(४) हास्यरस–लौकिकमां कोई विचित्र वस्तुने देखीने आनंदनो उल्लास ने
हास्य आवे ते लौकिक हास्यरस छे. अने चैतन्यना स्वभाव प्रत्ये वीर्यनो अपूर्व
उल्लास आवे, अनुभवनी अपूर्वतानो आनंद आवे, एवो जे अनुभवना उत्साहरूप
रस छे ते परमार्थ हास्यरस छे, तेमां आत्मानो साचो आनंद छे.
(५) रौद्ररस–स्वानुभवना बळवडे आत्मानी चैतन्यदशा एवी उग्र थाय के आठ
कर्मोनो भूक्को बोलावी द्ये–तेनुं नाम रौद्ररस छे. लौकिकमां लडाई वगेरेमां तीव्र क्रोधथी
दुश्मनने मारी नांखे तेवा भावने लोको रौद्ररस कहे छे, ते तो पाप छे. आ चैतन्यनो
वीतरागी रौद्ररस तो एवो छे के कर्मोने नष्ट करीने, आत्माने परम शांतरसमां लीन करे.
(६) बीभत्सरस–लोकमां अपवित्र ग्लानी उपजावे तेवा पदार्थने बीभत्स कहे
छे, तेने जोतां अणगमो उपजे छे, ते बीभत्सरस कहेवाय छे. अहीं कहे छे के शरीरनी
अशुचितानो विचार करवो, ते बीभत्सरस छे. एकला शरीरना विचारनी वात नथी,
पण शरीर तो मांसादिनुं घर छे एम तेनुं स्वरूप विचारी, तेनाथी विरक्त थई, तेनाथी
भिन्न एवा चिदानंद स्वरूपमां वळवुं, ते शरीरने बीभत्स जाणवानुं फळ छे. एकलुं
बीभत्सपणुं विचारीने द्वेष करवा माटे वात नथी, पण तेनाथी भिन्न एवा पवित्रधाम
आत्मामां वळीने वीतरागरसनुं वेदन करवानी वात छे.
(७) भयानकरस–लोको तो सिंह–वाघ–सर्प–राक्षस–चोर वगेरेने जोतां भय
पामे छे. तेनी अहीं वात नथी. अहीं तो कहे छे के तारे भयभीत थवुं होय तो जन्म–
मरणथी भयभीत था...ने तेनाथी छूटवा चैतन्यनुं शरण ले. जन्म–मरणादिना के
नरकादिना भयंकर दुःखोनुं चिंतन करीने तेनाथी छूटवानो उपाय करवो. ते नरकादिना
दुःखोनी भयानकतानुं चिंतन ते भयानकरस छे. अरे, आवा भयंकर दुःखो में
भोगव्या. हवे तेनाथी छूटवा चैतन्यना शांतरसनो अनुभव करूं. –एम धर्मी आत्माना
स्वभावमां वळे छे. तेथी योगसारमां कह्युं छे के–
चार गति दुःखथी डरे तो तज सौ परभाव;
शुद्धातम चिंतन करी शिवसुखनो ले ल्हाव.
(८) अद्भुतरस–आत्मानी अनंत शक्तिनुं चिंतन करवुं ते अद्भुतरस छे.
अहो! मारा आत्मानी अनंत शक्तिनो वैभव कोई अद्भुत छे; अद्भुतथी पण