: १८ : आत्मधर्म : भाद्रपद : २४९७
तेनुं अभिमान थतुं नथी; तेम ज पिता वगेरे दरिद्र होय तो तेथी दीनता पण थती
नथी. ए बधा संयोगथी अत्यंत भिन्न चैतन्यस्वरूपे ज पोताने देख्यो छे. अरे, मारा
चैतन्यनी अधिकताथी बीजुं कोण अधिक छे–के जेनो हुं मद करूं? मारा चैतन्यना तेज
पासे चक्रवर्तीपद पण झांखुं लागे छे, तेमां मारी मोटाई नथी. चक्रवर्ती पद तो रागनुं
फळ छे. क्यां अनंतगुणमय चैतन्यपद, अने क्यां विकारनुं फळ! जेणे परमेश्वरनी
जातिरूपे पोताने देख्यो तेने हवे एवी कई खामी रही के बहारमां देहनी जाति वगेरेमां
पोतापणुं माने? चैतन्यजाति पासे जड–देहनी जातिनां अभिमान केवा? देह हुं छुं ज
नहीं, हुं तो चैतन्य ज छुं–आवा सम्यक् भानमां धर्मीने शरीरादि संबंधी मद होता नथी.
मिथ्यात्वरूप दोष तो धर्मीने होय ज नहि, अने सम्यक्त्वना अतिचाररूप दोषने पण ते
दूर करे छे, तेनो आ उपदेश छे. निश्चय सम्यग्दर्शन साथे आवो चोक्खो व्यवहार होय
छे. तेमां सहेज पण अतिचार लागे तो ते दोष छे–एम समजीने तेनो त्याग करवो
जोईए. धर्मनां स्थान तो वीतरागी अरिहंतदेव, निर्ग्रंथ मुनिगुरु अने वीतरागी शास्त्र
छे, तेमां धर्मीजीव शंका करे नहि अने तेनाथी विरुद्ध होय तेने कोई प्रकारे आदरे नहीं.
प्राण जाय के गमे तेटली प्रतिकूळता आवे तोपण वीतरागी देव–गुरुनी श्रद्धा छोडे नहि,
एटले तेने सम्यक्त्वमां शंकादिक दोष होतां नथी.
संसारमां भ्रमण करतो जीव शुभाशुभ कर्मवश ऊंचकूळमां तेमज नीचकूळमां
अनंतवार अवतरी चुक्यो छे, ए तो क्षणिक संयोग छे. शाश्वत आत्माने आ
अवतारनां अभिमान शा? अवतार धारण करवो ते तो शरम छे. ऊच्चकूळ पाम्यानुं
फळ तो ए छे के रत्नत्रयनां उत्तम आचरणवडे आत्माने मोक्षमार्गमां जोडवो, ने
मिथ्यात्वादि पापनां अधम आचरणने छोडवा. बाकी उत्तमकूळमां अवतरीने पण जो
अभक्ष्यभक्षण वगेरे निंद्य कार्य करे तो ते नरकमां ज जाय; ऊंचुंकूळ कांई नरकमां जतां
रोके नहीं.–आम विचारी धर्मीजीव कूळ के जातिना मदने छोडे छे.
* एक वैरागी बाळक माता पासे दीक्षानी रजा मांगे छे.
* त्यारे माता कहे छे–बेटा! तने दीक्षानी रजा तो आपुं, पण एक शरते!
* पुत्र कहे छे–कहो माता, कई शरत?
* माता कहे छे–दीक्षा लीधा पछी एवी आत्मसाधना कर के फरीने बीजी माता
न करवी पडे; एटले हुं तारी छेल्ली ज माता होउं! –आ शरते हुं तने
दीक्षानी रजा आपुं छुं.