: भाद्रपद : २४९७ आत्मधर्म : १९ :
* पुत्र कहे छे–धन्य माता! अप्रतिहत साधना करीने हुं केवळज्ञान प्रगट करीश,
ने फरीने आ संसारमां अवतार नहीं लउं; फरीने बीजी माता नहीं करूं.
जुओ, संसारमां माताना पेटे अवतार धारण करवो ए तो कलंक छे; एनां मद
शा? चैतन्यमूर्ति अशरीरी भगवानने माता–पिताना संबंधथी ओळखाववो पडे ते तो
शरम छे. जेणे अशरीरी चैतन्यतत्त्व अनुभवमां लीधुं तेने माता–पिता संबंधी
मोटाईनो मद होतो नथी. आ रीते धर्मीने जातिमद तथा कूळमदनो अभाव छे.
३. रूपमद : शरीरना रूपनो गर्व सम्यग्द्रष्टिने होतो नथी. आत्मानुं रूप तो
ज्ञान छे; धर्मीजीव शरीरथी भिन्न पोताना ज्ञानरूपने देखे छे. आ चामडाना शरीरनुं
रूप ते अमारूं रूप नथी, ए तो क्षणमां नाश पामी जाय के सडी जाय तेवुं छे, एनो गर्व
कोण करे? आ रीते धर्मीने सुंदररूपनो गर्व नथी, तेम ज कोई गुणवाननुं शरीर कुरूप –
काळुं कूबडुं होय तो तेना प्रत्ये तीरस्कार पण नथी. सुंदर रूपवाळो पण जो पाप करे तो
दुर्गतिमां ज जाय. माटे शरीरना रूपथी कांई आत्मानी शोभा नथी. सम्यग्दर्शन प्रगट्युं
छे ते ज आत्मानुं साचुं महान श्रेष्ठ आभूषण छे, तेनाथी आत्मा त्रणलोकमां शोभे छे.
शरीरथी पोताना आत्माने भिन्न जाण्यो छे एटले शरीर रूपाळुं होय तो तेना
वडे पोतानी अधिकता भासती नथी, ने शरीर कदरूपुं होय तो दीनता पण थती नथी.
ए रूप तो जडनुं छे, ते रूप मारुं छे ज नहीं पछी तेना अभिमान शा? मारुं तो चैतन्य
रूप छे, चैतन्यना रूपथी ऊंचुं जगतमां कोई नथी. वीतरागी चैतन्यरूप वडे मारी शोभा
छे. शुभराग पण मारा रूपथी कदरूप छे, ने शरीरनुं रूप तो पुद्गलनी रचना छे. आवा
भानमां धर्मीने रूपनो मद होतो नथी.
४. विद्यामद अर्थात् ज्ञानमद : कोई विद्या आवडे के शास्त्रनुं जाणपणुं होय
तेनो घमंड धर्मीने होय नहीं. अहा, क्यां परम अतीन्द्रिय केवळज्ञान? ने क्यां आ
अल्पज्ञान? केवळज्ञानना अचिंत्य सामर्थ्य पासे तो आ ज्ञान अनंतमा भागनुं छे.
चैतन्य विद्यानो आखो दरियो जेणे देख्यो तेने खाबोचिया जेवा जाणपणानो महिमा के
मद थतो नथी. आ तो जे ज्ञानी छे, जेने विशेष ज्ञानादि विद्या खीली छे अने छतां
तेनो मद नथी–तेनी वात छे. जे अज्ञानी छे, अने विशेष ज्ञानादि न होवा छतां
शास्त्रादिना थोडाक जाणपणामां घणो मद करे छे तेने तो आत्माना अपार
ज्ञानसामर्थ्यनी खबर ज नथी, ते तो जराक जाणपणामां अटकी जाय छे. बापु! तारा