Atmadharma magazine - Ank 335
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २४९७ आत्मधर्म : ३५ :
** चैतन्यनी चर्चाना चमकार **
(रात्रिचर्चा वगेरेमांथी मुमुक्षुने उपयोगी दोहन)
* जीवने ज्यारे–ज्यारे धर्मनी शरूआत करवी होय त्यारे पोताना शुद्धआत्मारूप
स्वद्रव्यना आश्रये ज धर्मनी शरूआत थाय छे; धर्मनी बीजी कोई रीत नथी. ते माटे
रागथी अत्यंत पार, अने पोताना ज्ञानादिस्वभावथी भरपूर आत्मानो परम
अचिंत्य महिमा ओळखीने वारंवार तेनी सन्मुख परिणतिनो ऊंडो अभ्यास करवो
जोईए.–गुरुदेव आ वात वारंवार गंभीर हृदये कहे छे. भाई! आवो अवसर
मळ्‌यो छे तो आत्मानी दरकार करीने आ काम तुं करी ले.
* सम्यग्दर्शन ते स्वद्रव्यमां अंतर्मुखताथी ज थाय छे; तेमां बीजा कोईनी, रागनी,
व्यवहारनी अपेक्षा नथी. आवो शुभराग होय तो सम्यग्दर्शन पमाय एम रागनी
अपेक्षा तेमां नथी; सम्यकत्वादि अंतर्मुख भाव तो बधाय रागथी निरपेक्ष छे.
* रागनी अने ज्ञाननी अत्यंत भिन्नताना अभ्यास वगर साचुं ज्ञान के सम्यग्दर्शन
थाय नहीं. रागना आलंबन वगर, ईन्द्रियज्ञान वगर, आत्मा पोते प्रत्यक्षज्ञाता
थईने स्वसंवेदनथी पोते पोताने जाणे छे–एवो तेनो अचिंत्यस्वभाव छे. अने आ
रीते प्रत्यक्षज्ञाता थईने, अतीन्द्रियज्ञान वडे पोते पोताने स्वानुभूतिमां ल्ये त्यारे
ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान थाय छे.
* कुंदकुंदभगवान जेवा वीतरागी संतना स्वानुभवनी आनंदमय प्रसादीरूप
समयसार–प्राभृत छे; तेनो अद्भुत–अचिंत्य–अलौकिक महिमा करतां गुरुकहान
वारंवार भावभीना चित्ते कहे छे के अहो, आ समयसार तो अशरीरीभाव
बतावनारुं शास्त्र छे; तेना भावो समजतां अशरीरी एवुं सिद्धपद पमाय छे.
कुंदकुंदप्रभुनी तो शी वात! पण अमृतचंद्र महाराजे पण टीकामां आत्मानी
अनुभूतिना गंभीर ऊंडा भावो खोलीने जगत उपर महान उपकार कर्यो छे.
मोक्षनो मूळमार्ग आ संतोए जगतसमक्ष प्रसिद्ध कर्यो छे...चैतन्यनां कबाट खोली
नांख्या छे.
* भगवान ऋषभदेवादि तीर्थंकरभगवंतो गणधरभगवंतो वगेरे पुराणपुरुषोना पूर्व
भवोनुं पवित्र जीवनचरित्र तेमज तेमनी धर्मआराधनानुं अलौकिक वर्णन