: ३६ : आत्मधर्म : भाद्रपद : २४९७
पुराणोमां वांचतां आपणने केवो आनंद थाय छे? ने केवो धर्मोल्लास जागे छे?
वाह!–तो पछी एमनी साथे ज रहीने ए बधुं आपणने नजरे जोवा मळे–तेना
महिमानी शी वात! अने ते प्रसंगमां आपणने केवो धर्मोल्लास होवो जोईए!
सोनगढमां आजे गुरुप्रतापे आपणने तीर्थंकरादिना पूर्वभव नजरे जोवा मळे छे ए
केवा महा भाग्य छे! (आ संबंधी महत्त्वपूर्ण आनंदकारी उद्गारो गुरुदेवना
श्रीमुखे भादरवा सुद आठमनी रात्रिचर्चामां नीकळ्या हता; ते प्रसंगे मुरब्बीश्री
रामजीभाईए अने सभाजनोए घणो प्रमोद व्यक्त कर्यो हतो.)
* चैतन्यवस्तुनुं घणुं माहात्म्य छे; सर्वे संतोए ने शास्त्रोए चैतन्यवस्तुनो परम
अद्भुत महिमा गायो छे,–पण ते वस्तु हुं ज छुं; ते बधोय महिमा मारामां ज भर्यो
छे–आम स्वसन्मुख थईने हे जीव! तुं तारी चैतन्यवस्तुनी श्रद्धा कर...तेने
अनुभवमां ले. तुं पोते आवो अनुभव करीश त्यारे ज तने धर्मीनुं हृदय अने
शास्त्रनुं खरूं रहस्य समजाशे.
* भारतमां हजारो जीवो अत्यारे अध्यात्म तत्त्वनी वात प्रेमथी सांभळी रह्या छे. आ
संबंधमां घणीवार गुरुदेव कहे छे के–भरतक्षेत्रना मुमुक्षु जीवोनां महान भाग्ये अत्यारे
आवो परमसत्यमार्ग स्पष्ट प्रसिद्धिमां आव्यो छे. अत्यारे एवी लायकातवाळा जीवो छे
तेथी आवो स्पष्ट दिगंबर जैनमार्ग बहार आव्यो छे. अरे, ज्यां जीवोनी लायकात होय
त्यां तीर्थंकर भगवाननुं समवसरण पण आकाशमांथी आवी जाय. जुओने,
ऋषभदेवना जीवनी अने महावीरप्रभुना जीवनी सम्यग्दर्शन पामवानी लायकात जागी
त्यां उपरथी गगनविहारी मुनिओ त्यां ऊतर्या ने एवो धोधमार उपदेश आप्यो, के त्यां
ने त्यां ते जीवो सम्यग्दर्शन पाम्या. ‘साधर्मीबंधुओ! आपणे माटे पण अत्यारे एवो ज
सोनेरी अवसर छे...सम्यकत्वनो अवसर छे. ’
* हुं जे श्रद्धा करुं छुं ते श्रद्धा नवी छे–अपूर्व छे. पण हुं जेनी श्रद्धा करुं छुं ते मारी
चैतन्यवस्तु कांई नवी नथी, आ चैतन्यवस्तुरूप हुं तो पूर्वे पण आवो ज शाश्वत
हतो, ने शाश्वत रहीश.
* अति आसन्न भव्य एवा सुद्रष्टि जीवोने पोतानो परमभाव सफळ थयो छे एटले
के अनुभवमां आव्यो छे...सम्यकत्वादिरूपे प्रगट थयो छे...पोताना परम भावनुं
तेने भान थयुं छे.