Atmadharma magazine - Ank 335
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: भाद्रपद : २४९७ आत्मधर्म : ३ :
११ आत्मा तो स्वयं ज्ञानस्वरूप छे; ज्ञानस्वरूप ज सत्य छे, ते ज अनुभववा जेवुं
छे, ते ज कल्याणरूप छे.–आम पोताना सत्य ज्ञानस्वरूपनो निर्णय करीने हे
जीव! तुं तारा ज्ञानना ज अनुभवथी संतुष्ट था...तृप्त था...तेमां तने पोताने
परम सुखनो अनुभव थशे; पछी तारे बीजाने पूछवुं नहीं पडे. वचनअगोचर
एवा अपूर्व आत्मिक सुखनो तने अनुभव थशे; ते सुख तने स्वयमेव पोताना
स्वादमां आवशे. तुं पोते ज ते सुख छो,–पछी बीजाने शुं पूछवुं पडे?
१२ मारी चीज मारामां में देखी, साक्षात् अनुभवी, त्यां संदेह शो? ज्ञान–स्वरूप हुं
पोते सत्य छुं, हुं ज स्वयं कल्याण छुं, हुं ज अनुभवनीय छुं ने हुं ज सुखस्वरूप–
छुं आवो पहेलां द्रढ निर्णय करीने स्व–संवेदन–प्रत्यक्षथी स्वानुभव कर्यो, त्यां हवे
पूछवापणुं कोने रह्युं?
१३ मारी पासे ज मारुं तत्त्व में देख्युं, ने मारो मोह नष्ट थई गयो; हुं हवे सर्वे
कर्मोथी अत्यंत रहित, चैतन्यस्वरूप मारा आत्मामां ज आत्मापणे वर्तुं छुं.
मारी निर्विकल्प–वीतरागी परिणति वडे हुं मारामां वर्तुं छुं–आम धर्मी
पोताने अनुभवे छे; तेने संवर–निर्जरा छे, तेने प्रतिक्रमण–प्रत्याख्यान छे.
तेने सुख अने धर्म छे.
१४ धर्मीने निःशंक भान छे के हुं रागमां नथी वर्ततो, निर्विकल्प भाववडे हुं मारा
चैतनस्वरूपमां ज वर्तुं छुं.
१५ पहेलांं रागमां–विकल्पमां एकत्वबुद्धिने लीधे चैतन्यना निधानने ताळां दीधा
हता. हवे भान थयुं के रागथी मारुं चैतन्यतत्त्व अत्यंत जुदुं छे, त्यां अपूर्व
आनंदना अनुभव वडे चैतन्यना निधान खुल्या, आत्मामां आनंदनो अवतार
थयो.
१६ आवा सम्यग्द्रष्टि–सम्यग्ज्ञानी–सत् चारित्रवंत धर्मात्माने हुं नमस्कार करुं छुं.
आहा! ए तो जगतनां धर्मरत्न छे. सम्यग्दर्शन ते मोक्षमार्गनुं रत्न छे, तेने
धारण करनारा धर्मात्मा ते धर्मरत्न छे. भवभवना कलेशनो नाश करवा माटे हुं
तेने नित्य वंदुं छुं.
१७ कई रीते वंदुं छुं?–के निर्विकल्प भाववडे तेमना जेवा ज्ञानानंदस्वरूप