: ४ : आत्मधर्म : भाद्रपद : २४९७
आत्मामां वर्ततो थको हुं तेमने नमस्कार करुुं छुं. एकला रागमां वर्तीने साचा
नमस्कार के साची भक्ति थती नथी. पंचपरमेष्ठी–ज्ञानी–धर्मात्माने साचा
नमस्कार करनारने पोतामां ज्ञान अने रागनी भिन्नता थई गई छे. ‘आवा
भाववडे हुं ज्ञानीने नमस्कार करुं छुं.’
१८ सिद्धभगवान वगेरे पंचपरमेष्ठी भगवंतो पोताना शुद्धआत्मामां ज स्थिर छे,
तेथी तेमने नमस्कार करनार जीव शुद्धआत्मा तरफ नमे छे–तेमां वळे छे–तेमां
तन्मय थाय छे, ने रागथी जुदो पडे छे. आ रीते पोतानो शुद्ध आत्मा ज साचुं
शरण छे; बहारमां पंचपरमेष्ठीनुं शरण व्यवहारथी छे.
१९ केवळज्ञान–केवळदर्शन–केवळसुख स्वभावी परम चैतन्यतेज हुं छुं–एम जेणे
अंतर्मुख थईने पोते पोताने जाण्यो तेणे शुं न जाण्युं? पोते पोताने देख्यो तेणे शुं
न देख्युं? अने तेनुं श्रवण करतां शुं श्रवण न कर्युं?–एटले के पोतानो आवो
शुद्धआत्मा ज श्रवण करवा योग्य तथा श्रद्धा–ज्ञानमां लेवायोग्य सौथी श्रेष्ठ छे;
तेनाथी ऊंचुं बीजुं कांई नथी.
२० अरे, जीवोए व्यवहारनी–रागनी वात तो अनंतवार सांभळी छे ने आचरी पण
छे, पण पोतानुं परमतत्त्व अंतरमां केवुं छे ते परमार्थस्वरूपने प्रेमथी कदी
सांभळ्युं नथी.
२१ ‘प्रेमथी सांभळ्युं नथी’ एम कह्युं;–‘प्रेमथी सांभळ्युं’ त्यारे कहेवाय के अंतरमां
ऊंडो ऊतरीने पोते तेनो साक्षात् अनुभव करे. वक्ताए जेवो स्वभाव कह्यो तेवो
पोते लक्षमां लईने अनुभव करे तो ज साचुं श्रवण कर्युं कहेवाय.
२२ हे जीव! तारा आवा स्वरूपने तुं अनुभवमां ले. अंतरमां अमृतनो सागर
भगवान आत्मा छे तेमां डुबकी मार...ते ज आनंद छे. तेनाथी बहार जवुं ते तो
आकुळता छे, पाप छे, केमके पवित्रताथी विरूद्ध होवाथी अध्यात्ममां तेने पाप कहे
छे. राग वगरनो चैतन्यनो अनुभव ते ज पवित्र सुखरूप छे.
२३ आवो अनुभव करनार धर्मात्माना हृदयमां चैतन्यहंस बिराजे छे; सहज
चैतन्यशक्तिसंपन्न आनंदमय परमात्मा तेना अंतरमां जयवंत वर्ते छे.