Atmadharma magazine - Ank 336
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : आसो : २४९७
ज छुं. ताराथी जराय दूर नथी.
अहो! आवुं सच्चिदानंद तत्त्व, अचिंत्य महिमावंत, पोते ज छे, तेनी प्राप्ति माटे
कोई बीजाना महिमानी जरूर नथी. सम्यग्द्रष्टि गृहस्थ पण पोताना आवा शुद्धतत्त्वने
अनुभवे छे. आहा, मारो आत्मा ज कल्याणनी मूर्ति छे. तेने नजरमां लीधो छे तेथी
मारूं कल्याण ज छे; प्रत्यक्षस्वभावी आत्मा पर्यायमां पण स्वानुभवप्रत्यक्ष थयो
छे; अहा! आवो प्रत्यक्षअंश जेमांथी आव्यो ते आखी वस्तु प्रत्यक्षस्वभावी ज
छे, आम स्वसंवेदनप्रत्यक्षना बळे धर्मी पोताना प्रत्यक्षस्वभावी आत्माने निःशंक
जाणे छे. ते जाणनारा ज्ञान तो मति–श्रुत छे, छतां ते ज्ञानमां ईन्द्रियनुं–मननुं के
रागनुं अवलंबन नथी. अतीन्द्रियस्वभावी चेतनवस्तु छे तेनुं आलंबन करतां
पर्याय पण तेवी अतीन्द्रिय थई छे.
आवुं आत्मानुं स्वसंवेदन थतां धर्मी जाणे छे के
आनंदनुं ने ज्ञाननुं धाम हुं ज छुं. ज्ञाननुं मंदिर, आनंदनुं मंदिर हुं ज छुं, माराथी
बहार बीजे क्यांय मारा ज्ञान–आनंद नथी. –आम स्वसन्मुख अनुभूति करनार
धर्मात्माने पोतानो आत्मा सुलभ ज छे, दूर्लभ नथी, दूर नथी.
सम्यग्द्रष्टि जाणे छे के– मारो आत्मा उत्कृष्ट समतानुं घर छे. त्रणलोकमां
खळभळाट थाय तोपण जे पोतानी समताथी छूटे नहि एवो मारो आत्मा छे;
परभावोना प्रपंचथी ते दूर छे, पण मारा स्वभावमां ते मने निरंतर सुलभ छे. मारुं
शुद्धतत्त्व मारामां सदा प्राप्त ज छे, सदाय मने सुलभ ज छे. मारामां सदाय हुं प्राप्त ज
छुं. मारूं तत्त्व माराथी दूर नथी. मन–वाणीथी दूर छे, पण स्वानुभव वडे ते मारामां
सुलभ छे–आवुं जे पोतानुं शुद्धतत्त्व छे ते नमवायोग्य छे, तेमां अंतर्मुख थईने एकाग्र
थवा जेवुं छे. अमे तेने ज नमीए छीए.
अहो, आत्मा तो शांतरसनो समुद्र छे, ज्यां केवळज्ञानरूपी पूनमनो चंद्र
सोळकळाए ऊग्यो त्यां शांतरसनो समुद्र ऊछळ्‌यो. आ केवळज्ञानचंद्र सदाय सोळ
कळाए खील्यो छे, तेनी साथे परम शांतरस उल्लसे छे; तेवो ज मारा आत्मानो
स्वभाव छे–एम हे जीव! तुं तारा स्वभावनो विश्वास लाव! तारा आत्मामां संकल्प–
विकल्प करवानो स्वभाव नथी; एकलो अनाकूळ शांतरस ज तारामां भर्यो छे.–आवा
स्वरूपमां नजर करतां शांतरसनो दरियो पोतामां उल्लसतो देखाय छे... अनंती शांति
मारा आत्मामां वेदाय छे; मारी परिणतिद्वारा मारा शांतरसमय भगवानने हुं वधावुं छुं.